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आ वो॒ राजा॑नमध्व॒रस्य॑ रु॒द्रं होता॑रं सत्य॒यजं॒ रोद॑स्योः। अ॒ग्निं पु॒रा त॑नयि॒त्नोर॒चित्ता॒द्धिर॑ण्यरूप॒मव॑से कृणुध्वम् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vo rājānam adhvarasya rudraṁ hotāraṁ satyayajaṁ rodasyoḥ | agnim purā tanayitnor acittād dhiraṇyarūpam avase kṛṇudhvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वः॒। राजा॑नम्। अ॒ध्व॒रस्य॑। रु॒द्रम्। होता॑रम्। स॒त्य॒ऽयज॑म्। रोद॑स्योः। अ॒ग्निम्। पु॒रा। त॒न॒यि॒त्नोः। अ॒चित्ता॑त्। हिर॑ण्यऽरूपम्। अव॑से। कृ॒णु॒ध्व॒म्॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:3» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सोलह ऋचावाले तीसरे सूक्त का वर्णन है उसके प्रथम मन्त्र में सूर्य्यरूप अग्नि के दृष्टान्त से राज प्रजाजनों के कृत्य का वर्णन करते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे यथार्थवक्ता विद्वानो ! जैसे हम लोग (वः) आपके (अध्वरस्य) न नष्ट करने योग्य राज्य के (अवसे) धर्मात्माओं की रक्षा और दुष्टों के नाश करने के लिये (होतारम्) देने (सत्ययजम्) सत्य ही को प्राप्त होने और (रुद्रम्) दुष्टों के रुलानेवाले (अचित्तात्) जिसमें चित्त नहीं स्थिर होता, ऐसी (तनयित्नोः) बिजुली के (हिरण्यरूपम्) तेजरूप के समान रूपवाले वा (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी के मध्य में (अग्निम्) सूर्य्य के सदृश (राजानम्) प्रकाशमान न्याय (पुरा) प्रथम करें, वैसा हम लोगों के बीच राजा आप लोग (आ, कृणुध्वम्) सब प्रकार करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् लोगो ! राजा और प्रजाजनों के साथ एक सम्मति करके जैसे ईश्वर ने ब्रह्माण्ड के मध्य में सूर्य्य को स्थित करके सब का प्रियसुख साधन किया, वैसे ही हम लोगों के मध्य में उत्तम गुण, कर्म और स्वभावयुक्त को राजा करके हम लोगों के हित को आप लोग सिद्ध करो, जिससे आप लोगों का भी प्रिय सिद्ध होवे ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्य्यरूपाग्निदृष्टान्तेन राजप्रजाजनकृत्यमाह ॥

अन्वय:

हे आप्ता विद्वांसो ! यथा वयं वोऽध्वरस्यावसे होतारं सत्ययजं रुद्रमचित्तात् तनयित्नोर्हिरण्यरूपं रोदस्योरग्निमिव राजानं पुरा कुर्याम तथाभूतमस्माकं नृपं यूयमाकृणुध्वम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (वः) युष्माकम् (राजानम्) प्रकाशमानम् (अध्वरस्य) अहिंसनीयस्य राज्यस्य (रुद्रम्) दुष्टानां रोदयितारम् (होतारम्) दातारम् (सत्ययजम्) यः सत्यमेव यजति सङ्गच्छते तम् (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (अग्निम्) सूर्य्यमिव वर्त्तमानम् (पुरा) पुरस्तात् (तनयित्नोः) विद्युतः (अचित्तात्) अविद्यमानं चित्तं यत्र तस्मात् (हिरण्यरूपम्) हिरण्यस्य तेजसो रूपमिव रूपं यस्य तम् (अवसे) धर्मात्मनां रक्षणाय दुष्टानां हिंसनाय (कृणुध्वम्) ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! राजप्रजाजनैरेकसम्मतिं कृत्वा यथेश्वरेण ब्रह्माण्डस्य मध्ये सूर्य्यं स्थापयित्वा सर्वस्य प्रियं साधितं तथाभूतं राजानमस्माकं मध्ये शुभगुणकर्मस्वभावाऽन्वितं नृपं कृत्वाऽस्माकं हितं यूयं साधयत यतो युष्माकमपि प्रियं सिध्येत् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी, राजा व प्रजा यांच्या कृत्याचे व गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्व सूक्तार्थाची संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! जसे ईश्वराने ब्रह्मांडात सूर्य स्थित करून सर्वांचे प्रिय सुख साधन निर्माण केलेले आहे. तसे राजा व प्रजा यांच्या संमतीने आमच्यातील गुणकर्मस्वभाव उत्तम असेल त्याला राजा करून आमचे हित साधा. ज्यामुळे तुमचेही हित व्हावे ॥ १ ॥