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प्र सु ष विभ्यो॑ मरुतो॒ विर॑स्तु॒ प्र श्ये॒नः श्ये॒नेभ्य॑ आशु॒पत्वा॑। अ॒च॒क्रया॒ यत्स्व॒धया॑ सुप॒र्णो ह॒व्यं भर॒न्मन॑वे दे॒वजु॑ष्टम् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra su ṣa vibhyo maruto vir astu pra śyenaḥ śyenebhya āśupatvā | acakrayā yat svadhayā suparṇo havyam bharan manave devajuṣṭam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। सु। सः। विऽभ्यः॑। म॒रु॒तः॒। विः। अ॒स्तु॒। प्र। श्ये॒नः। श्ये॒नेभ्यः॑। आ॒शु॒ऽपत्वा॑। अ॒च॒क्रया॑। यत्। स्व॒धया॑। सु॒ऽप॒र्णः। ह॒व्यम्। भर॑त्। मन॑वे। दे॒वऽजु॑ष्टम् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:26» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:15» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजसेनाविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (श्येनः) वाज (विः) पक्षी (श्येनेभ्यः) वाजनामक (विभ्यः) पक्षी विशेषों से (अचक्रया) अविद्यमान चक्राकारगति के साथ (आशुपत्वा) शीघ्र गिर के वेग को (भरत्) धारण करता है, वैसे (मरुतः) मनुष्य जन मनुष्यों की सेना के वेगादिगुण को (प्र) विशेष करके धारण करता है (यत्) जो (सुपर्णः) उत्तम पतनयुक्त (मनवे) मनुष्य के लिये (स्वधया) अन्न आदि से (देवजुष्टम्) विद्वानों से सेवित (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य वस्तु को (प्र) अत्यन्त (सु) उत्तम प्रकार धारण करता है (सः) वह सब स्थानों में सुखकारी (अस्तु) हो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! इस सृष्टि और अन्तरिक्ष में जैसे पक्षी आकाश में जाकर आते हैं, वैसे ही सब लोक और लोकान्तर घूमते हैं, जो सृष्टिविद्या को जानता है, वही मनुष्यादिकों का सुखकारी होता है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजसेनाविषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा श्येनो विः श्येनेभ्यो विभ्य अचक्रया आशुपत्वा वेगं भरत्तथा मरुतो मनुष्याणां सेनावेगादिकं प्रभरद्यद्यो सुपर्णो मनवे स्वधया देवजुष्टं हव्यं प्र सु भरत् स सर्वत्र सुखकार्य्यस्तु ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (सु) (सः) (विभ्यः) पक्षिभ्यः (मरुतः) मनुष्याः (विः) पक्षी (अस्तु) भवतु (प्र) (श्येनः) (श्येनेभ्यः) पक्षिविशेषेभ्यः (आशुपत्वा) सद्यः पतित्वा (अचक्रया) अविद्यमानचक्राकारया (यत्) यः (स्वधया) अन्नादिना (सुपर्णः) शोभनपतनः (हव्यम्) ग्रहीतुमर्हम् (भरत्) दधाति (मनवे) मनुष्याय (देवजुष्टम्) विद्वद्भिः सेवितम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! अस्यां सृष्टावन्तरिक्षे यथा पक्षिण आकाशे गत्वाऽऽगच्छन्ति तथैव सर्वे लोकलोकान्तरा भ्रमन्ति यः सृष्टिविद्यां जानाति स एव मनुष्यादीनां सुखकारी भवति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसे पक्षी आकाशात उडतात तसे या सृष्टी व अंतरिक्षात सर्व लोकलोकान्तर फिरतात. जो सृष्टिविद्या जाणतो तोच माणसांसाठी सुखकारक असतो. ॥ ४ ॥