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का सु॑ष्टु॒तिः शव॑सः सू॒नुमिन्द्र॑मर्वाची॒नं राध॑स॒ आ व॑वर्तत्। द॒दिर्हि वी॒रो गृ॑ण॒ते वसू॑नि॒ स गोप॑तिर्नि॒ष्षिधां॑ नो जनासः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kā suṣṭutiḥ śavasaḥ sūnum indram arvācīnaṁ rādhasa ā vavartat | dadir hi vīro gṛṇate vasūni sa gopatir niṣṣidhāṁ no janāsaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

का। सु॒ऽस्तु॒तिः। शव॑सः। सू॒नुम्। इन्द्र॑म्। अ॒र्वा॒ची॒नम्। राध॑से। आ। व॒व॒र्त॒त्। द॒दिः। हि। वी॒रः। गृ॒ण॒ते। वसू॑नि। सः। गोऽप॑तिः। निः॒ऽसिधा॑म्। नः॒। ज॒ना॒सः ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:24» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:11» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले चौबीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में ब्रह्मचर्यवान् के पुत्र की प्रशंसा कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (जनासः) विद्वान् वीरपुरुषो ! जो (वीरः) विद्या और शौर्य्य आदि गुणों से व्याप्त जन (गृणते) प्रशंसित कर्म्मवान् के लिये (वसूनि) द्रव्यों को (ददिः) देनेवाला वर्त्तमान है (सः) वह (हि) जिससे (निष्षिधाम्) अत्यन्त शासन करनेवालों के मङ्गलाचारों से युक्त (नः) हम लोगों का (गोपतिः) पृथिवीपति अर्थात् राजा हो (का) कौन (सुष्टुतिः) उत्तम प्रशंसा और (शवसः) बहुत बलवान् के (सूनुम्) पुत्र को (अर्वाचीनम्) इस समयवाले युवावस्थायुक्त (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले का (आ, ववर्त्तत्) वर्त्ताव करावे और कौन (राधसे) धन और ऐश्वर्य्यवान् के लिये धन के योग का वर्त्ताव करावे ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो पूर्ण ब्रह्मचर्य्य को किये हुए का पुत्र और वह स्वयं भी पूर्ण ब्रह्मचर्य्य और विद्या से युक्त और प्रशंसित आचरण करने और सुख देनेवाला होवे, वह ही आप का और हम लोगों का राजा हो ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ ब्रह्मचर्य्यवतः पुत्रप्रशंसामाह ॥

अन्वय:

हे जनासो ! यो वीरो गृणते वसूनि ददिर्वर्त्तते स हि निष्षिधां नो गोपतिर्भवतु। का सुष्टुतिः शवसः सूनुमर्वाचीनमिन्द्रमाववर्त्तत्। को राधसे धनस्य योगमाववर्त्तत् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (का) (सुष्टुतिः) शोभना प्रशंसा (शवसः) बहुबलवतः (सूनुम्) अपत्यम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यप्रदम् (अर्वाचीनम्) इदानीन्तनं युवावस्थास्थम् (राधसे) धनैश्वर्य्याय (आ) (ववर्त्तत्) आवर्त्तयेत् (ददिः) दाता (हि) यतः (वीरः) व्याप्तविद्याशौर्य्यादिगुणः (गृणते) प्रशंसितकर्म्मणे (वसूनि) द्रव्याणि (सः) (गोपतिः) गोः पृथिव्याः स्वामी (निष्षिधाम्) नितरां शासितॄणां मङ्गलाचाराणाम् (नः) अस्माकम् (जनासः) विद्वांसो वीराः ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यः पूर्णकृतब्रह्मचर्यस्य पुत्रः स्वयमनुष्ठितपूर्णब्रह्मचर्य्यविद्यः प्रशंसिताचरणस्सुखदाता भवेत् स एव युष्माकमस्माकञ्च राजा भवतु ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात ब्रह्मचारी पुत्राची-प्रशंसा, अधर्माचा त्याग व उत्तम कर्माने बुद्धी व ऐश्वर्याची वृद्धी, नियमित आहार-विहार, शत्रूवर विजय, ज्येष्ठ /कनिष्ठाचा व्यवहार सांगितलेला आहे, यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जो पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन केलेल्याचा पुत्र व स्वतःही पूर्ण ब्रह्मचारी व विद्येने युक्त आणि प्रशंसनीय आचरण करणारा व सुख देणारा असेल तो तुम्हा आम्हा सर्वांचा राजा व्हावा. ॥ १ ॥