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क॒था शृ॑णोति हू॒यमा॑न॒मिन्द्रः॑ क॒था शृ॒ण्वन्नव॑सामस्य वेद। का अ॑स्य पू॒र्वीरुप॑मातयो ह क॒थैन॑माहुः॒ पपु॑रिं जरि॒त्रे ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kathā śṛṇoti hūyamānam indraḥ kathā śṛṇvann avasām asya veda | kā asya pūrvīr upamātayo ha kathainam āhuḥ papuriṁ jaritre ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क॒था। शृ॒णो॒ति॒। हू॒यमा॑नम्। इन्द्रः॑। क॒था। शृ॒ण्वन्। अव॑साम्। अ॒स्य॒। वे॒द॒। काः। अ॒स्य॒। पू॒र्वीः। उप॑ऽमातयः। ह॒। क॒था। ए॒न॒म्। आ॒हुः॒। पपु॑रिम्। ज॒रि॒त्रे ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:23» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:9» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (इन्द्रः) अध्यापक वा राजा (हूयमानम्) स्पर्द्धा करते हुए को (कथा) किस प्रकार (शृणोति) सुनता है और (शृण्वन्) सुनता हुआ (अस्य) इसके (अवसाम्) रक्षण आदिकों की स्पर्द्धा करते हुए को (कथा) किस प्रकार से (वेद) जाने (अस्य) इसकी (पूर्वीः) प्राचीन (उपमातयः) उपमा (ह) ही (काः) कौन हैं? अनन्तर (एनम्) इसको (जरित्रे) विद्वान् के लिये (पपुरिम्) पालन करनेवाला (कथा) किस प्रकार (आहुः) कहते हैं, ऐसा पूछना चाहिए ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो विद्यार्थी और राजा के जन यथार्थवक्ता पुरुषों के वचनों के शास्त्रों को उत्तम प्रकार सुन, मान और निश्चय करके पुनः कर्मों का आरम्भ करते हैं, वे ही सम्पूर्ण जानने योग्य को जानते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! इन्द्रो हूयमानं कथा शृणोति शृण्वन्नस्याऽवसां हूयमानं कथा वेदाऽस्य पूर्वीरुपमातयो ह काः सन्ति। अथैनं जरित्रे पपुरिं कथाऽऽहुरिति प्रष्टव्यम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कथा) केन प्रकारेण (शृणोति) (हूयमानम्) स्पर्द्धमानम् (इन्द्रः) अध्यापको राजा वा (कथा) (शृण्वन्) (अवसाम्) रक्षणादीनाम् (अस्य) (वेद) जानीयात् (काः) (अस्य) (पूर्वीः) प्राचीनाः (उपमातयः) उपमाः (ह) खलु (कथा) (एनम्) (आहुः) (पपुरिम्) पालकम् (जरित्रे) विदुषे ॥३॥
भावार्थभाषाः - ये विद्यार्थिनो राजजनाश्चाऽऽप्तानां वचांसि शास्त्राणि सम्यक्छ्रुत्वा मत्वा निश्चित्य पुनः कर्म्माऽऽरभन्ते त एव सर्वं वेदितव्यं विजानन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्यार्थी व राजा आप्त पुरुषाचे वचन ऐकून, शास्त्र उत्तम प्रकारे ऐकून, मानून व निश्चय करून नंतर कर्माचा आरंभ करतात; तेच संपूर्ण जाणण्यायोग्यांना जाणतात. ॥ ३ ॥