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स्थू॒रस्य॑ रा॒यो बृ॑ह॒तो य ईशे॒ तमु॑ ष्टवाम वि॒दथे॒ष्विन्द्र॑म्। यो वा॒युना॒ जय॑ति॒ गोम॑तीषु॒ प्र धृ॑ष्णु॒या नय॑ति॒ वस्यो॒ अच्छ॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sthūrasya rāyo bṛhato ya īśe tam u ṣṭavāma vidatheṣv indram | yo vāyunā jayati gomatīṣu pra dhṛṣṇuyā nayati vasyo accha ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्थू॒रस्य॑। रा॒यः। बृ॒ह॒तः। यः। ईशे॑। तम्। ऊ॒म् इति॑। स्त॒वा॒म॒। वि॒दथे॑षु। इन्द्र॑म्। यः। वा॒युना॑। जय॑ति। गोऽम॑तीषु। प्र। धृ॒ष्णु॒ऽया। नय॑ति। वस्यः॑। अच्छ॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:21» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (बृहतः) बड़े (स्थूरस्य) स्थूल (रायः) धन का (ईशे) स्वामी होता है (विदथेषु) सङ्ग्रामों में (इन्द्रम्) शत्रु के नाश करनेवाले को (अच्छ) उत्तम प्रकार (नयति) प्राप्त करता है (यः) जो (गोमतीषु) प्रशंसित वाणियों से युक्त सेनाओं में (धृष्णुया) प्रगल्भता और (वायुना) पवन के साथ उत्तम प्रकार (जयति) विजयी होता है (वस्यः) अत्यन्त श्रेष्ठ धन को (प्र) प्रीति के साथ चाहता है (तम्, उ) उसी की हम लोग (स्तवाम) प्रशंसा करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो राजा बड़ी सेनाओं से सङ्ग्रामों में विजय को प्राप्त हो तथा बहुत धनों और प्रतिष्ठा को प्राप्त होकर प्रशंसित होता है, उसी की स्तुति करनी चाहिये ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो बृहतः स्थूरस्य राय ईशे विदथेष्विन्द्रमच्छ नयति यो गोमतीषु धृष्णुया वायुनाऽच्छ जयति वस्यः प्रणयति तमु वयं स्तवाम ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्थूरस्य) स्थूलस्य (रायः) धनस्य (बृहतः) महतः (यः) (ईशे) ईष्ट ईश्वरो भवति (तम्) (उ) (स्तवाम) प्रशंसेम (विदथेषु) सङ्ग्रामेषु (इन्द्रम्) शत्रुविदारकम् (यः) (वायुना) पवनेन (जयति) (गोमतीषु) प्रशंसिता गावो वाचो यासु सेनासु तासु (प्र) (धृष्णुया) धृष्णूनि प्रगल्भानि याति यैस्तानि (नयति) (वस्यः) अतिशयेन श्रेष्ठं धनम् (अच्छ) ॥४॥
भावार्थभाषाः - यो राजा महतीभिस्सेनाभिः सङ्ग्रामेषु विजयं प्राप्य महान्ति धनानि प्रतिष्ठाञ्च लब्ध्वा प्रशंसितो जायते तस्यैव स्तुतिः कर्त्तव्या ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा मोठ्या सेनेसह युद्धात विजय प्राप्त करतो व पुष्कळ धन, प्रतिष्ठा प्राप्त करून प्रशंसित होतो त्याचीच स्तुती केली पाहिजे. ॥ ४ ॥