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अ॒भि प्र द॑द्रु॒र्जन॑यो॒ न गर्भं॒ रथा॑इव॒ प्र य॑युः सा॒कमद्र॑यः। अत॑र्पयो वि॒सृत॑ उ॒ब्ज ऊ॒र्मीन्त्वं वृ॒ताँ अ॑रिणा इन्द्र॒ सिन्धू॑न् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhi pra dadrur janayo na garbhaṁ rathā iva pra yayuḥ sākam adrayaḥ | atarpayo visṛta ubja ūrmīn tvaṁ vṛtām̐ ariṇā indra sindhūn ||

पद पाठ

अ॒भि। प्र। द॒द्रुः॒। जन॑यः। न। गर्भ॑म्। रथाः॑ऽइव। प्र। य॒युः॒। सा॒कम्। अद्र॑यः। अत॑र्पयः। वि॒ऽसृतः॑। उ॒ब्जः। ऊ॒र्मीन्। त्वम्। वृ॒तान्। अ॒रि॒णाः। इ॒न्द्र॒। सिन्धू॑न् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:19» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सेनापति के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) शत्रुओं के नाश करनेवाले सेनापति ! जो (अद्रयः) मेघ (जनयः) स्त्रियों के (न) तुल्य (गर्भम्) गर्भ को (प्र, अभि, दद्रुः) सब ओर से प्राप्त होते हैं (रथाइव) वाहनों के सदृश (साकम्) साथ (प्र, ययुः) शीघ्र जाते हैं और जैसे उन (विसृतः) जो विशेष करके फैलती (ऊर्म्मीन्) उन तरङ्गों के सहित (सिन्धून्) नदियों का सूर्य्य (उब्जः) नाश करे वा (अरिणाः) नाश करता है, वैसे (त्वम्) आप (वृतान्) स्वीकार किये हुओं को (अतर्पयः) तृप्त करो और आपके भृत्य जावें और स्त्री गर्भ को धारण करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस राजा की मेघ के सदृश ऊँची और वाहनों के सदृश साथ चलनेवाली सेनायें चलती हैं, उसका सूर्य्य के सदृश विजय होता है ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सेनापतिगुणानाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! येऽद्रयो जनयो न गर्भम्प्राभिदद्रू रथा इव साकं प्रययुर्यथा तान् विसृत ऊर्म्मीन् सिन्धून्त्सूर्य्य उब्जोऽरिणास्तथा त्वं वृतानतर्पयस्तव भृत्या गच्छन्तु भार्य्या गर्भन्धरतु ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभि) आभिमुख्ये (प्र) (दद्रुः) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति (जनयः) जनित्र्यो भार्य्याः (न) इव (गर्भम्) (रथाइव) (प्र) (ययुः) प्रयान्ति (साकम्) सह (अद्रयः) मेघाः (अतर्पयः) तर्पय (विसृतः) ये विशेषेण सरन्ति तान् (उब्जः) हन्याः (उर्म्मीन्) सतरङ्गान् (त्वम्) (वृतान्) स्वीकृतान् (अरिणाः) हिनस्ति (इन्द्र) शत्रुविदारक (सिन्धून्) नदीः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यस्य राज्ञो मेघा इवोच्छ्रिता रथा इव सह गामिन्यस्सेना गच्छन्ति तस्य सूर्य्यस्येव विजयो भवति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या राजाच्या मेघाप्रमाणे उंच व वाहनाप्रमाणे शीघ्र चालणाऱ्या सेना असतात त्याचा सूर्याप्रमाणे विजय होतो. ॥ ५ ॥