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प॒रा॒य॒तीं मा॒तर॒मन्व॑चष्ट॒ न नानु॑ गा॒न्यनु॒ नू ग॑मानि। त्वष्टु॑र्गृ॒हे अ॑पिब॒त्सोम॒मिन्द्रः॑ शतध॒न्यं॑ च॒म्वोः॑ सु॒तस्य॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

parāyatīm mātaram anv acaṣṭa na nānu gāny anu nū gamāni | tvaṣṭur gṛhe apibat somam indraḥ śatadhanyaṁ camvoḥ sutasya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प॒रा॒ऽय॒तीम्।। मा॒तर॑म्। अनु॑। अ॒च॒ष्ट॒। न। न। अनु॑। गा॒नि॒। अनु॑। नु। ग॒मा॒नि॒। त्वष्टुः॑। गृ॒हे। अ॒पि॒ब॒त्। सोम॑म्। इन्द्रः॑। श॒त॒ऽध॒न्य॑म्। च॒म्वोः॑। सु॒तस्य॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:18» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:25» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उत्तम ऐश्वर्यवान् राजा के लिये सेना के संरक्षण विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (इन्द्रः) शत्रुओं का नाश करनेवाला सेना का ईश (त्वष्टुः) प्रकाश के (गृहे) स्थान में (सुतस्य) ऐश्वर्य्य से युक्त के (शतधन्यम्) असंख्य धन में साधु (सोमम्) ओषधियों के रस को (चम्वोः) सेनाओं के मध्य में (अपिबत्) पीता है (परायतीम्) और मरनेवाली (मातरम्) माता को (न) नहीं (अनु, अचष्ट) प्रसिद्ध करे, वैसे मैं (नु) शीघ्र (अनु, गानि) पीछे जाऊँ और वैसे मैं (न) न (अनु, गमानि) पीछे जाऊँ ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सेना के अधीश राजगृह में सत्कार को प्राप्त होकर, नियमित आहार और विहार से पूर्ण बल को करके, दोनों अपनी और शत्रुओं की सेना के मध्य में विवाद का नाश करें वा युद्ध करावें, उनका सदा ही विजय और जैसे रोगग्रस्त माता की सन्तान सेवा करते हैं, वैसे ही सेना का सेवन करते हैं, वे न्याय के अनुगामी होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेन्द्राय सेनासंरक्षणविषयमाह ॥

अन्वय:

यथेन्द्रस्त्वष्टुर्गृहे सुतस्य शतधन्यं सोमं चम्वोरपिबत् परायतीं मातरं नाऽन्वचष्ट तथाऽहं न्वनुगानि तथाऽहं नानुगमानि ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (परायतीम्) म्रियमाणाम् (मातरम्) जननीम् (अनु) (अचष्ट) ख्यापयेत् (न) (न) (अनु) (गानि) गच्छेयम् (अनु) (नु) सद्यः (गमानि) गच्छेयम् (त्वष्टुः) प्रकाशस्य (गृहे) (अपिबत्) पिबति (सोमम्) ओषधिरसम् (इन्द्रः) शत्रुविदारकः सेनेशः (शतधन्यम्) असङ्ख्ये धने साधुम् (चम्वोः) सेनयोर्मध्ये (सुतस्य) निष्पन्नस्यैश्वर्यस्य ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सेनाधीशा राजगृहे सत्कारं प्राप्य युक्ताऽऽहारविहाराभ्यां पूर्णं बलं निष्पाद्य द्वयोः स्वस्य शत्रूणां च सेनयोर्मध्ये विवादं विनाशेयुर्वा योधयेयुस्तेषां सदैव विजयो यथा रुग्णां मातरमपत्यानि सेवन्ते तथैव सेनायाः सेवनं कुर्वन्ति ते न्यायाऽनुगामिनो भवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सेनाधीश राजगृहात सत्कार प्राप्त करून नियमित आहार-विहाराने पूर्ण बल प्राप्त करतात त्यांनी आपल्या व शत्रूच्या सेनेतील विवादाचा नाश करावा किंवा युद्ध करावे, तेव्हाच त्यांचा विजय होतो. जशी रोगी मातेची सेवा संतान करते, तसा सेनेचा स्वीकार जे करतात ते न्यायी असतात. ॥ ३ ॥