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तव॑ त्वि॒षो जनि॑मन्रेजत॒ द्यौरेज॒द्भूमि॑र्भि॒यसा॒ स्वस्य॑ म॒न्योः। ऋ॒घा॒यन्त॑ सु॒भ्वः१॒॑ पर्व॑तास॒ आर्द॒न्धन्वा॑नि स॒रय॑न्त॒ आपः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tava tviṣo janiman rejata dyau rejad bhūmir bhiyasā svasya manyoḥ | ṛghāyanta subhvaḥ parvatāsa ārdan dhanvāni sarayanta āpaḥ ||

पद पाठ

तव॑। त्वि॒षः। जनि॑मन्। रे॒ज॒त॒। द्यौः। रेज॑त्। भूमिः॑। भि॒यसा॑। स्वस्य॑। म॒न्योः। ऋ॒घा॒यन्त॑। सु॒ऽभ्वः॑। पर्व॑तासः। आर्द॑न्। धन्वा॑नि। स॒रय॑न्ते। आपः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:17» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (जनिमन्) जन्मवाले राजन् ! जिस जगदीश्वर के (त्विषः) प्रताप से (भियसा) भय से (द्यौः) अन्तरिक्ष (रेजत) कम्पित होता और (भूमिः) पृथ्वी (रेजत्) कम्पित होती वैसे (तव) आपके (स्वस्य) निज (मन्योः) क्रोध से शत्रु लोग काँपें और जैसे (सुभ्वः) उत्तम प्रकार वृष्टि जिनसे हो ऐसे (पर्वतासः) पर्वतों के सदृश ऊँचे मेघ (ऋघायन्त) बाधित होते (आर्दन्) और नाश करते हैं (आपः) जल और (धन्वानि) स्थल अर्थात् शुष्क भूमियाँ (सरयन्ते) गमन करती हैं, वैसे ही आपकी सेना और मन्त्रीजन होवें ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! आप परमेश्वर के सदृश पक्षपात का त्याग करके मनुष्यों में पिता के सदृश वर्त्ताव करो और जैसे जगदीश्वर के भय से सम्पूर्ण जगत् व्यवस्थित रहता है, वैसे ही आप के दण्ड के भय से सब जगत् भोग के लिये कल्पित हो और सूर्य जैसे मेघ को बाधा करता और जलवृष्टि से जगत् को आनन्दित करता है, वैसे ही शत्रुओं को बाधित करके सज्जनों को आनन्द दीजिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे जनिमन् ! राजन्यस्य जगदीश्वरस्य त्विषो भियसा द्यौ रेजत भूमी रेजत्तथा तव स्वस्य मन्योः शत्रवः कम्पन्ताम्। यथा सुभ्वः पर्वतास ऋघायन्ताऽऽर्दनापो धन्वानि सरयन्ते तथैव तव सेना अमात्याश्च भवन्तु ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तव) (त्विषः) प्रतापात् (जनिमन्) जन्मवन् (रेजत) रेजते (द्यौः) (रेजत्) रेजते कम्पते (भूमिः) (भियसा) भयेन (स्वस्य) (मन्योः) (ऋघायन्त) बाध्यन्ते (सुभ्वः) सुष्ठु भवन्ति वृष्टयो येभ्यस्ते (पर्वतासः) शैला इवोच्छ्रिता मेघाः (आर्दन्) हिंसन्ति (धन्वानि) स्थलानि (सरयन्ते) गमयन्ति (आपः) जलानि ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजंस्त्वं परमेश्वरवत्पक्षपातं विहाय नृषु पितृवद्वर्त्तस्व यथा जगदीश्वरभयात् सर्वं जगद् व्यवतिष्ठते तथैव तव दण्डभयात् सर्वं जगद्भोगाय कल्पतां यथा सूर्य्यो मेघं बाधते जलवृष्ट्या जगदानन्दयति तथैव शत्रून् बाधित्वा सज्जनानानन्दय ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तू परमेश्वराप्रमाणे पक्षपाताचा त्याग करून लोकांबरोबर पित्याप्रमाणे वर्तन कर व जसे जगदीश्वराच्या भयाने संपूर्ण जग व्यवस्थित राहते तसे तुझ्या दंडाच्या भयाने सर्व जग भोगासाठी संरचित असावे व सूर्य जसा मेघाला बाधित करतो व जलवृष्टीने जगाला आनंदित करतो, तसेच शत्रूंना बाधित करून सज्जनांना आनंद दे. ॥ २ ॥