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क्षि॒यन्तं॑ त्व॒मक्षि॑यन्तं कृणो॒तीय॑र्ति रे॒णुं म॒घवा॑ स॒मोह॑म्। वि॒भ॒ञ्ज॒नुर॒शनि॑माँइव॒ द्यौरु॒त स्तो॒तारं॑ म॒घवा॒ वसौ॑ धात् ॥१३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kṣiyantaṁ tvam akṣiyantaṁ kṛṇotīyarti reṇum maghavā samoham | vibhañjanur aśanimām̐ iva dyaur uta stotāram maghavā vasau dhāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क्षि॒यन्त॑म्। त्व॒म्। अक्षि॑यन्तम्। कृ॒णो॒ति॒। इय॑र्ति। रे॒णुम्। म॒घऽवा॑। स॒म्ऽओह॑म्। वि॒ऽभ॒ञ्ज॒नुः। अ॒शनि॑मान्ऽइव। द्यौः। उ॒त। स्तो॒तार॑म्। म॒घऽवा॑। वसौ॑। धा॒त् ॥१३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:17» मन्त्र:13 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा को उत्तम और अनुत्तम का दण्ड और सत्कार करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जैसे (मघवा) अत्यन्त धनयुक्त पुरुष (स्तोतारम्) यज्ञ करनेवाले को (वसौ) धन में (धात्) धारण करता है, वैसे जो (द्यौः) प्रकाश के सदृश (उत) और भी (अशनिमानिव) बहुत शस्त्र और अस्त्रवाले के सदृश (विभञ्जनुः) शत्रुओं का नाश करता हुआ (मघवा) श्रेष्ठधन से युक्त पुरुष (क्षियन्तम्) निवास करते और (अक्षियन्तम्) नहीं निवास करते हुए को (कृणोति) स्वीकार करता है (समोहम्) उत्तम प्रकार से छिपे हुए (रेणुम्) अपराध को (इयर्ति) प्राप्त होता है, उसको (त्वम्) आप शिक्षा दीजिये ॥१३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! आप जो अपराध करे उसको दण्ड के विना मत छोड़ो और जैसे यजमान विद्वान् जन को यज्ञ में स्वीकार करके धन देके सुख देता है, वैसे ही श्रेष्ठ सभासदों को स्वीकार करके ऐश्वर्य दे सब को आनन्द दीजिये ॥१३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथा राज्ञोत्तमानुत्तमयोर्दण्डसत्कारौ कर्त्तव्यावित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यथा मघवा स्तोतारं वसौ धात्तथा यो द्यौरिवोताप्यशनिमानिव विभञ्जनुस्सन् मघवा क्षियन्तमक्षियन्तं कृणोति समोहं रेणुमियर्त्ति तं त्वं शिक्षय ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (त्वम्) (अक्षियन्तम्) न निवसन्तम् (कृणोति) (इयर्त्ति) प्राप्नोति (रेणुम्) अपराधम् (मघवा) (समोहम्) सम्यग्गूढम् (विभञ्जनुः) शत्रूणां विभञ्जकः (अशनिमानिव) यथा बहुशस्त्राऽस्त्रः (द्यौः) प्रकाशः (उत) (स्तोतारम्) ऋत्विजम् (मघवा) (वसौ) धने (धात्) दधाति ॥१३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे राजँस्त्वं योऽपराधं कुर्य्यात्तं दण्डेन विना मा त्यजेः। यथा यजमानो विद्वांसं यज्ञे वृत्वा धनं दत्वा सुखयति तथैव श्रेष्ठान् सभासदो वृत्वैश्वर्य्यं दत्वा सर्वानानन्दय ॥१३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा! जे अपराध करतात त्यांना दंड दिल्याखेरीज सोडू नको व जसे यजमान विद्वान लोकांना यज्ञात धन देऊन सुखी करतो, तसेच श्रेष्ठ सभासदांना ऐश्वर्य देऊन सर्वांना आनंदी कर. ॥ १३ ॥