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कुत्सा॑य॒ शुष्ण॑म॒शुषं॒ नि ब॑र्हीः प्रपि॒त्वे अह्नः॒ कुय॑वं स॒हस्रा॑। स॒द्यो दस्यू॒न्प्र मृ॑ण कु॒त्स्येन॒ प्र सूर॑श्च॒क्रं वृ॑हताद॒भीके॑ ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kutsāya śuṣṇam aśuṣaṁ ni barhīḥ prapitve ahnaḥ kuyavaṁ sahasrā | sadyo dasyūn pra mṛṇa kutsyena pra sūraś cakraṁ vṛhatād abhīke ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कुत्सा॑य। शुष्ण॑म्। अ॒शुष॑म्। नि। ब॒र्हीः॒। प्र॒ऽपि॒त्वे। अह्नः॑। कुय॑वम्। स॒हस्रा॑। स॒द्यः। दस्यू॑न्। प्र। मृ॒ण॒। कु॒त्स्येन॑। प्र। सूरः॑। च॒क्रम्। वृ॒ह॒ता॒त्। अ॒भीके॑ ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:16» मन्त्र:12 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! आप (अह्नः) दिन के (प्रपित्वे) उत्तम प्रकार प्राप्त होने पर (कुत्साय) निन्दित व्यवहार के लिये (कुयवम्) निकृष्ट यव जिसके उस (शुष्णम्) रसरहित (अशुषम्) दुःख को (नि, बर्हीः) दूर करो और जैसे (सूरः) सूर्य्य (चक्रम्) चक्र के सदृश वर्त्तमान ब्रह्माण्ड को (कुत्सेन) वैसे वज्र में हुए वेग से (सहस्रा) सहस्रों (दस्यून्) दुष्ट चोरों को (सद्यः) शीघ्र (प्र) (मृण) नाश कीजिये (अभीके) समीप में (प्र, वृहतात्) छेदन कीजिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! आप वज्र आदि शस्त्रों से दुष्ट चोरों का नाश करके सूर्य्य के सदृश प्रतापी हूजिये ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजंस्त्वमह्नः प्रपित्वे कुत्साय कुयवं शुष्णमशुषं निबर्हीः सूरश्चक्रमिव कुत्सेन सहस्रा दस्यून् सद्यः प्रमृणाऽभीके प्रवृहतात् ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कुत्साय) निन्दिताय (शुष्णम्) शुष्कं नीरसम् (अशुषम्) असुरं दुःखम् (नि) (बर्हीः) उत्पाटय (प्रपित्वे) प्रकृष्टप्राप्ते (अह्नः) दिवसस्य (कुयवम्) कुत्सिता यवा यस्य तम् (सहस्रा) सहस्राणि (सद्यः) (दस्यून्) दुष्टान् चोरान् (प्र) (मृण) हिन्धि (कुत्स्येन) कुत्से वज्रे भवेन वेगेन (प्र) (सूरः) सूर्य्यः (चक्रम्) चक्रमिव वर्त्तमानं ब्रह्माण्डम् (वृहतात्) छिन्द्यात् (अभीके) समीपे ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! भवान् वज्रादिशस्त्रैर्दस्यून् हत्वा सूर्य्यप्रतापी भवतु ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तू वज्र इत्यादी शस्त्रांनी दुष्ट चोरांचा नाश करून सूर्याप्रमाणे पराक्रमी हो. ॥ १२ ॥