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वहि॑ष्ठेभिर्वि॒हर॑न्यासि॒ तन्तु॑मव॒व्यय॒न्नसि॑तं देव॒ वस्म॑। दवि॑ध्वतो र॒श्मयः॒ सूर्य॑स्य॒ चर्मे॒वावा॑धु॒स्तमो॑ अ॒प्स्व१॒॑न्तः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vahiṣṭhebhir viharan yāsi tantum avavyayann asitaṁ deva vasma | davidhvato raśmayaḥ sūryasya carmevāvādhus tamo apsv antaḥ ||

पद पाठ

वहि॑ष्ठेभिः। वि॒ऽहर॑न्। या॒सि॒। तन्तु॑म्। अ॒व॒ऽव्यय॑न्। असि॑तम्। दे॒व॒। वस्म॑। दवि॑ध्वतः। र॒श्मयः॑। सूर्य॑स्य। चर्म॑ऽइव। अव॑। अ॒धुः॒। तमः॑। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तरिति॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:13» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सूर्य्यदृष्टान्त से विद्वानों के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) प्रकाशमान विद्वन् ! जिससे आप (वहिष्ठेभिः) अत्यन्त प्राप्त करानेवालों से सूर्य (तन्तुम्) कारण को (विहरन्) प्राप्त होता हुआ और (असितम्) कृष्णवर्ण अन्धकार को (अवव्ययन्) दूर करता हुआ चलता है, वैसे (वस्म) निवासस्थान को (अव, यासि) प्राप्त होते हो और जैसे (दविध्वतः) कँपाते हुए (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मयः) किरणें (अप्सु) अन्तरिक्ष के (अन्तः) मध्य में (तमः) अन्धकार को (चर्मेव) जैसे चर्म शरीर को ढाँपता है, वैसे (अधुः) ढाँपते हैं, वैसे आप हूजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे उपदेशक ! जैसे सूर्य प्राप्त करानेवाले किरणों के आकर्षणादिकों से अपने प्रकाश का विस्तार करता हुआ, चर्म से देह के सदृश अन्धकार को ढाँपता हुआ, अन्तरिक्ष के मध्य में विहार करता है, वैसे ही अविद्या का नाश और विद्या का प्रकाश =विस्तार करके इस संसार में विचरिये ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्य्यदृष्टान्तेन विद्वद्गुणानाह ॥

अन्वय:

हे देव विद्वन् ! यतस्त्वं वहिष्ठेभिः सविता तन्तुं विहरन्नसितमवव्ययन् याति तथा वस्माव यासि यथा दविध्वतस्सूर्यस्य रश्मयोऽप्स्वन्तस्तमश्चर्मेवाधुस्तद्वत्त्वं भव ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वहिष्ठेभिः) अतिशयेन वोढृभिः (विहरन्) विचरन् (यासि) याति। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (तन्तुम्) कारणम् (अवव्ययन्) दूरीकुर्वन् (असितम्) कृष्णं तमः (देवः) प्रकाशमान (वस्म) निवासस्थानम् (दविध्वतः) कम्पयतः (रश्मयः) (सूर्यस्य) (चर्मेव) यथा चर्म देहमावृणोति तथा (अव) (अधुः) आच्छादयन्ति (तमः) अन्धकारम् (अप्सु) अन्तरिक्षे (अन्तः) मध्ये ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे उपदेशक ! यथा सूर्यो वोढृभिः किरणाकर्षणादिभिः स्वप्रकाशं विस्तारयन् चर्मणा देहमिव तम आच्छादयन्नन्तरिक्षस्य मध्ये विहरति तथैवाऽविद्यां विच्छिद्य विद्यां विस्तार्याऽस्मिञ्जगति विचर ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे उपदेशका! जसा सूर्य किरणाच्या आकर्षणाने स्वप्रकाशाचा विस्तार करतो. चर्म जसे देहाला झाकते तसा तो अंधकाराला नष्ट करीत अंतरिक्षात विहार करतो, तसेच अविद्येचा नाश व विद्येचा प्रकाश करून या जगात वावरा. ॥ ४ ॥