वांछित मन्त्र चुनें

इ॒ध्मं यस्ते॑ ज॒भर॑च्छश्रमा॒णो म॒हो अ॑ग्ने॒ अनी॑क॒मा स॑प॒र्यन्। स इ॑धा॒नः प्रति॑ दो॒षामु॒षासं॒ पुष्य॑न्र॒यिं स॑चते॒ घ्नन्न॒मित्रा॑न् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

idhmaṁ yas te jabharac chaśramāṇo maho agne anīkam ā saparyan | sa idhānaḥ prati doṣām uṣāsam puṣyan rayiṁ sacate ghnann amitrān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒ध्मम्। यः। ते॒। ज॒भर॑त्। श॒श्र॒मा॒णः। म॒हः। अ॒ग्ने॒। अनी॑कम्। आ। स॒प॒र्यन्। सः। इ॒धा॒नः। प्रति॑। दो॒षाम्। उ॒षस॑म्। पुष्य॑न्। र॒यिम्। स॒च॒ते॒। घ्नन्। अ॒मित्रा॑न् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:12» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:12» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्नि के सादृश्य से राजगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) राजन् ! (यः) जो (शश्रमाणः) अत्यन्त परिश्रम करता हुआ सेना का स्वामी (ते) आपकी (महः) बड़ी (इध्मम्) प्रकाशयुक्त (अनीकम्) विजय को प्राप्त होती हुई सेना की (आ) सब प्रकार (सपर्य्यन्) सेवा करता हुआ (जभरत्) यथावत् हरे पोषे पुष्ट हो अर्थात् शत्रु बल हरे और आप पुष्ट हो (सः) वह (इधानः) प्रकाशमान होता (प्रति, दोषाम्) प्रत्येक रात्रि और (उषासम्) प्रत्येक दिन (पुष्यन्) पुष्टि पाता (अमित्रान्) और धर्म से द्वेष करनेवाले शत्रुओं का (घ्नन्) नाश करता हुआ (रयिम्) राज्यलक्ष्मी को (सचते) प्राप्त होता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जो आपके सेनाध्यक्ष और न्यायाधीश विद्या विनय और धर्म आदि से प्रकाशमान हुए अपनी प्रजाओं का पालन करते और दुष्ट शत्रुओं का नाश करते हुए विजय को प्राप्त होते हैं, उनके लिये आपको चाहिये कि बहुत प्रतिष्ठा और बहुत धन देकर दिन-रात्रि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की उन्नति करें ॥२॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्निसादृश्येन राजगुणानाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! यः शश्रमाणो बलाध्यक्षस्ते मह इध्ममनीकमासपर्य्यञ्जभरत् स इधानः प्रतिदोषामुषासं प्रति पुष्यन्नमित्रान् घ्नन् रयिं सचते ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इध्मम्) देदीप्यमानम् (यः) (ते) तव (जभरत्) यथावद्धरेत् पोषयेत्पुष्येत् (शश्रमाणः) भृशं श्रमं कुर्वन् (महः) महत् (अग्ने) राजन् (अनीकम्) विजयमानं सैन्यम् (आ) समन्तात् (सपर्य्यन्) सेवमानः (सः) (इधानः) प्रकाशमानः (प्रति) (दोषाम्) रात्रिम् (उषासम्) दिनम् (पुष्यन्) (रयिम्) राज्यश्रियम् (सचते) प्राप्नोति (घ्नन्) विनाशयन् (अमित्रान्) धर्मद्वेषिणः शत्रून् ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! ये तव बलाध्यक्षा न्यायाधीशा विद्याविनयधर्मादिभिः प्रकाशमानाः स्वप्रजाः पालयन्तो दुष्टाञ्छत्रून् घ्नन्तो विजयन्ते तेभ्यो भवता पुष्कलां प्रतिष्ठां बहुधनं च दत्वाहर्निशं धर्मार्थकाममोक्षोन्नतिर्विधेया ॥२॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जे तुझे सेनाध्यक्ष व न्यायाधीश विद्या, विनय व धर्म इत्यादींनी प्रसिद्ध होऊन आपल्या प्रजेचे पालन करतात व दुष्ट शत्रूंचा नाश करतात आणि विजय मिळवितात त्यांना अत्यंत प्रतिष्ठा व असंख्य धन देऊन रात्रंदिवस धर्म, अर्थ, काम, मोक्षाची उन्नती करावी. ॥ २ ॥