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त्रिर॑स्य॒ ता प॑र॒मा स॑न्ति स॒त्या स्पा॒र्हा दे॒वस्य॒ जनि॑मान्य॒ग्नेः। अ॒न॒न्ते अ॒न्तः परि॑वीत॒ आगा॒च्छुचिः॑ शु॒क्रो अ॒र्यो रोरु॑चानः ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

trir asya tā paramā santi satyā spārhā devasya janimāny agneḥ | anante antaḥ parivīta āgāc chuciḥ śukro aryo rorucānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रिः। अ॒स्य॒। ता। प॒र॒मा। स॒न्ति॒। स॒त्या। स्पा॒र्हा। दे॒वस्य॑। जनि॑मानि। अ॒ग्नेः। अ॒न॒न्ते। अ॒न्तरिति॑। परि॑ऽवीतः। आ। अ॒गा॒त्। शुचिः॑। शु॒क्रः। अ॒र्यः। रोरु॑चानः॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:1» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अग्नि के दृष्टान्त से विद्वानों के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (अग्नेः) अग्नि के सदृश जिस (अस्य, देवस्य) उत्तम गुण कर्म और स्वभाववाले इस राजा के जो (सत्या) उत्तम व्यवहारो में श्रेष्ठ (स्पार्हा) अभिकांक्षा करने के योग्य (परमा) उत्तम (जनिमानि) जन्म (सन्ति) हैं और जो (रोरुचानः) अत्यन्त प्रकाशमान (अर्य्यः) सब का स्वामी (शुक्रः) शीघ्र करनेवाला (शुचिः) पवित्र (परिवीतः) जिसके सब और उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव व्याप्त वह (अनन्ते) परमात्मा वा आकाशविषयक (अन्तः) मध्य में (ता) उनको (त्रिः) तीन वार (आ, अगात्) प्राप्त होता है, वही सब का अधीश होने योग्य है ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वही उत्तम कुल उत्पन्न होता है कि जिसके उत्तम कर्म हों। और जैसे बिजुली आदि अग्नि सीमारहित अन्तरिक्ष में शोभित होता है, वैसे ही जो अनन्त जगदीश्वर का ध्यान करके सब ज्ञानवाला शुद्धियुक्त होकर सम्पूर्ण उत्तम प्रशंसा करने योग्य कर्मों के करने को समर्थ होता है ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निदृष्टान्तेन विद्वद्गुणानाह।

अन्वय:

हे मनुष्या ! अग्नेरिव यस्याऽस्य देवस्य यानि सत्या स्पार्हा परमा जनिमानि सन्ति यो रोरुचानोऽर्य्यः शुक्रः शुचिः परिवीतोऽनन्तेऽन्तस्ता तानि त्रिरागात् स एव सर्वाधीशत्वमर्हति ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्रिः) त्रिवारम् (अस्य) राज्ञः (ता) तानि (परमा) उत्कृष्टानि (सन्ति) (सत्या) सत्सु व्यवहारेषु साधूनि (स्पार्हा) अभिकाङ्क्षितुं योग्यानि (देवस्य) दिव्यगुणकर्मस्वभावस्य (जनिमानि) जन्मानि (अग्नेः) विद्युदादेरिव (अनन्ते) परमात्मन्याकाशे वा (अन्तः) मध्ये (परिवीतः) परितः सर्वतो व्याप्तशुभगुणकर्मस्वभावः (आ, अगात्) आगच्छन्ति (शुचिः) पवित्रः (शुक्रः) आशुकारी (अर्य्यः) सर्वस्य स्वामी (रोरुचानः) भृशं देदीप्यमानः ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। स एवोत्तमे कुले जायते यस्योत्तमानि कर्माणि स्युः। यथा विद्युदाद्यग्निर्निस्सीमेऽन्तरिक्षे विराजते तथैव योऽनन्तं जगदीश्वरमन्तर्ध्यात्वा सर्वज्ञानवाञ्छुद्धियुक्तो भूत्वा सर्वाण्युत्तमानि प्रशंस्यानि कर्माणि कर्तुं प्रभवति ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याचे कर्म उत्तम असेल तोच उत्तम कुळात जन्मतो व जसा विद्युत अग्नी अमर्याद अंतरिक्षात शोभतो तसेच जो अनंत जगदीश्वराचे ध्यान करतो, तो सर्व ज्ञानयुक्त, शुद्धियुक्त बनून संपूर्ण उत्तम प्रशंसा करण्यायोग्य कर्म करण्यास समर्थ असतो. ॥ ७ ॥