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ते म॑न्वत प्रथ॒मं नाम॑ धे॒नोस्त्रिः स॒प्त मा॒तुः प॑र॒माणि॑ विन्दन्। तज्जा॑न॒तीर॒भ्य॑नूषत॒ व्रा आ॒विर्भु॑वदरु॒णीर्य॒शसा॒ गोः ॥१६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te manvata prathamaṁ nāma dhenos triḥ sapta mātuḥ paramāṇi vindan | taj jānatīr abhy anūṣata vrā āvir bhuvad aruṇīr yaśasā goḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ते। म॒न्व॒त॒। प्र॒थ॒मम्। नाम॑। धे॒नोः। त्रिः। स॒प्त। मा॒तुः। प॒र॒माणि॑। वि॒न्द॒न्। तत्। जा॒न॒तीः। अ॒भिः। अ॒नू॒ष॒त॒। व्राः। आ॒विः। भु॒व॒त्। अ॒रु॒णीः। य॒शसा॑। गोः॥१६॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:1» मन्त्र:16 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:15» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (मातुः) माता के सदृश (धेनोः) वाणी के (सप्त) सात अर्थात् सात गायत्र्यादि छन्दों में विभक्त (परमाणि) उत्तम व्यवहारों को (विन्दन्) जानते हैं (ते) वे इसके (प्रथमम्) प्रसिद्ध (नाम) स्तुतिसाधक शब्दमात्र को (त्रिः) तीन वार (मन्वत) मानते हैं और जो (यशसा) कीर्ति के साथ वर्त्तमान (आविः) प्रकट (भुवत्) होवे वह (तत्) उस (गोः) वाणी के विज्ञान को जाने और जो कीर्ति से प्रकट होवें वे (अरुणीः) रक्तगुण से विशिष्ट (जानतीः) विज्ञानवाली (व्राः) प्रकट होनेवालियों की (अभि) सब प्रकार (अनूषत) स्तुति करते हैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः - जैसे कामधेनु दुग्ध आदि से इच्छा को पूर्ण करती है, वैसी ही विद्या और उत्तम शिक्षा से युक्त वाणी विद्वानों को प्रसन्न करती है। जो लोग धर्म का आचरण करते हैं, वे यशस्वी होकर सर्वत्र प्रसिद्ध होते हैं ॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

ये मातुरिव धेनोः सप्त परमाणि विन्दन् तेऽस्य प्रथमं नाम त्रिर्मन्वत। यो यशसा सह वर्त्तमान आविर्भुवत् स तद्गोर्विज्ञानं जानीयात्। ये यशसा प्रकटाः स्युस्तेऽरुणीर्जानतीर्व्रा अभ्यनूषत ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) (मन्वत) मन्यन्ते (प्रथमम्) प्रख्यातम् (नाम) (धेनोः) वाण्याः (त्रिः) त्रिवारम् (सप्त) (मातुः) जनन्या इव (परमाणि) उत्कृष्टानि (विन्दन्) जानन्ति (तत्) (जानतीः) विज्ञानवतीः (अभि) सर्वतः (अनूषत) स्तुवन्ति (व्राः) या व्रियन्ते ताः (आविः) प्राकट्ये (भुवत्) भवेत् (अरुणीः) रक्तगुणविशिष्टाः (यशसा) कीर्त्या (गोः) विद्यासुशिक्षायुक्ताया वाचः ॥१६॥
भावार्थभाषाः - यथा कामधेनुर्दुग्धादिनेच्छां पिपर्त्ति तथैव विद्यासुशिक्षायुक्ता वाणी विदुषः पिपर्त्ति। ये धर्माचरणं कुर्वन्ति ते यशस्विनो भूत्वा सर्वत्र प्रसिद्धा जायन्ते ॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी कामधेनू दुग्ध इत्यादींनी इच्छा पूर्ण करते, तसेच विद्या व उत्तम शिक्षणाने युक्त वाणी विद्वानांना प्रसन्न करते. जे लोक धर्माचे आचरण करतात ते यशस्वी होऊन सर्वत्र प्रसिद्ध होतात. ॥ १६ ॥