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ई॒यि॒वांस॒मति॒ स्रिधः॒ शश्व॑ती॒रति॑ स॒श्चतः॑। अन्वी॑मविन्दन्निचि॒रासो॑ अ॒द्रुहो॒ऽप्सु सिं॒हमि॑व श्रि॒तम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

īyivāṁsam ati sridhaḥ śaśvatīr ati saścataḥ | anv īm avindan nicirāso adruho psu siṁham iva śritam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ई॒यि॒ऽवांस॑म्। अति॑। स्रिधः॑। शश्व॑तीः। अति॑। स॒श्चतः॑। अनु॑। ई॒म्। अ॒वि॒न्द॒न्। नि॒ऽचि॒रासः॑। अ॒द्रुहः॑। अ॒प्ऽसु। सिं॒हम्ऽइ॑व। श्रि॒तम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:9» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पाखण्डी लोग कैसे दूर होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (अति, स्रिधः) अति सहनशील (शश्वतीः) सनातन (अति, सश्चतः) अत्यन्त आपस में मिले हुए (निचिरासः) निश्चय से प्राचीन (अद्रुहः) द्रोहरहित प्रजाजन (ईयिवांसम्) प्राप्त होते हुए (अप्सु) जलों में (श्रितम्) आश्रित (सिंहमिव) सिंह के तुल्य (ईम्, अनु, अविन्दन्) सब ओर से अनुकूल प्राप्त हों, उनको तुम लोग सुख भोगनेवाले जानो ॥४॥
भावार्थभाषाः - जैसे सिंह को देख के हरिण आदि भाग जाते हैं, वैसे ही सुशिक्षायुक्त विद्वान् प्रजाजनों को देखकर पाखण्डी लोग नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः पाखण्डिनः कथं दूरीभवन्तीत्याह।

अन्वय:

हे मनुष्या अति स्रिधः शश्वतीरति सश्चतो निचिरासोऽद्रुहः प्रजा ईयिवांसमप्सु श्रितं सिंहमिवेमन्वविन्दन् ताः सुखिनीर्यूयं विजानीत ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ईयिवांसम्) प्राप्नुवन्तम् (अति) (स्रिधः) अतिसहनशीलाः (शश्वतीः) सनातन्यः (अति) (सश्चतः) समवेताः (अनु) (ईम्) (अविन्दन्) लभेरन् (निचिरासः) निश्चयेन चिरन्तन्यः प्रजाः (अद्रुहः) द्रोहरहिताः (अप्सु) जलेषु (सिंहमिव) व्याघ्रमिव (श्रितम्) सेवमानम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - यथा सिंहं दृष्ट्वा मृगादयः पलायन्ते तथैव सुशिक्षिता विदुषीः प्रजाः समीक्ष्य पाखण्डिनो विलीयन्ते ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे सिंहाला पाहून मृग इत्यादी पळून जातात, तसेच सुशिक्षित विद्वान प्रजेमुळे ढोंगी लोकांचा नाश होतो. ॥ ४ ॥