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काय॑मानो व॒ना त्वं यन्मा॒तॄरज॑गन्न॒पः। न तत्ते॑ अग्ने प्र॒मृषे॑ नि॒वर्त॑नं॒ यद्दू॒रे सन्नि॒हाभ॑वः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kāyamāno vanā tvaṁ yan mātṝr ajagann apaḥ | na tat te agne pramṛṣe nivartanaṁ yad dūre sann ihābhavaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

काय॑मानः। व॒ना। त्वम्। यत्। मा॒तॄः। अज॑गन्। अ॒पः। न। तत्। ते॒। अ॒ग्ने॒। प्र॒ऽमृषे॑। नि॒ऽवर्त॑नम्। यत्। दू॒रे। सन्। इ॒ह। अभ॑वः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:9» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्यार्थी किसको पाकर सुखी होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) शुभगुणों से प्रकाशमान सज्जन ! (कायमानः) पढ़ाते वा उपदेश करते (सन्) हुए (त्वम्) आप (यत्) जिससे (मातृः) माताओं के तुल्य रक्षक वा प्रिय (अपः) प्राणों को (अजगन्) प्राप्त होवें। और (यत्) जिससे (निवर्त्तनम्) अन्यायाचरण से पृथक् होने को (दूरे) दूर फेंकिये और मङ्गल के अर्थ (इष्ट) यहाँ (अभवः) हूजिये (तत्) इससे (ते) आपसे मैं (वना) माँगने योग्य पदार्थों को (प्रमृषे) सुखों से संयुक्त करूँ और मुझसे आप दूर न हूजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे प्यासा जन जल को पा के तृप्त होता, वैसे ही आप्त, अध्यापक और उपदेशक को विद्यार्थी जन प्राप्त हो के सब ओर से सुखी होता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्यार्थी कं प्राप्य सुखी भवतीत्याह।

अन्वय:

हे अग्ने कायमानः सँस्त्वं यन्मातॄरपोऽजगन्यन्निवर्त्तनं दूरे प्रक्षिपेर्मङ्गलायेहाभवस्तत्तस्मात्ते सकाशादहं वना प्रमृषे मत्तस्त्वं दूरे न भवेः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कायमानः) अध्यापयन्नुपदिशन् वा (वना) वनानि याचनीयानि (त्वम्) (यत्) यतः (मातॄः) मातर इव पालिकाः (अजगन्) प्राप्नुयाः (अपः) प्राणान् (न) (तत्) तस्मात् (ते) तव (अग्ने) शुभगुणैः प्रकाशमान (प्रमृषे) सुखैः संयोजयेः (निवर्त्तनम्) अन्यायाचरणात्पृथग्भवनम् (यत्) यस्मात् (दूरे) (सन्) (इह) (अभवः) भवेः ॥२॥
भावार्थभाषाः - यथा तृषातुरो जलं प्राप्य तृप्यति तथैवाप्तमध्यापकमुपदेशकं वा लब्ध्वा विद्याभिलाषी सर्वतः सुखी भवति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा तृषार्त मानव जल प्राप्त करून तृप्त होतो, तसेच आप्त, अध्यापक व उपदेशक यांना विद्यार्थी मिळाल्यामुळे सर्वस्वी सुखी होतात. ॥ २ ॥