वांछित मन्त्र चुनें

वन॑स्पते श॒तव॑ल्शो॒ वि रो॑ह स॒हस्र॑वल्शा॒ वि व॒यं रु॑हेम। यं त्वाम॒यं स्वधि॑ति॒स्तेज॑मानः प्रणि॒नाय॑ मह॒ते सौभ॑गाय॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vanaspate śatavalśo vi roha sahasravalśā vi vayaṁ ruhema | yaṁ tvām ayaṁ svadhitis tejamānaḥ praṇināya mahate saubhagāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वन॑स्पते। श॒तऽव॑ल्शः। वि। रो॒ह॒। स॒हस्र॑ऽवल्शाः। वि। व॒यम्। रु॒हे॒म॒। यम्। त्वाम्। अ॒यम्। स्वऽधि॑तिः। तेज॑मानः। प्र॒ऽनि॒नाय॑। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:8» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:4» मन्त्र:6 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:11


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ब्रह्मचर्य्य के अनुष्ठान से क्या होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वनस्पते) वनस्पति के समान वर्त्तमान परोपकारी सज्जन ! जैसे (शतवल्शः) सैकड़ों अङ्कुरवाला बाँस आदि वृक्ष विशेष बढ़ता है वैसे आप (वि, रोह) वृद्धि को प्राप्त हूजिये और सुख को (प्रणिनाय) उत्तम प्रकार से प्राप्त कीजिये। जैसे (सहस्रवल्शाः) हजारों अङ्कुरवाले वनस्पतियों के तुल्य साङ्गोपाङ्ग वर्त्तमान दूर्वा आदि बढ़ते हैं वैसे ही (वयम्) हम लोग (वि, रोह) विशेष कर बढ़ें। जैसे (अयम्) यह (तेजमानः) तीक्ष्ण किया (स्वधितिः) वज्ररूप विद्युत् अग्नि (महते) बड़े (सौभगाय) सुन्दर धन होने के लिये (यम्) जिस (त्वाम्) आपको बढ़ाता है, वैसे हम लोग भी बढ़ावे ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र मे वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य्य, विद्या, सुशिक्षा, धर्म और पुरुषार्थों से युक्त हुए कार्य्यसिद्धि के अर्थ प्रयत्न करते हैं, वे बाँस आदि वृक्षों के तुल्य सब ओर से बढ़ते हैं। जैसे सुन्दर तीक्ष्ण शस्त्रों से शत्रुओं को जीत के अजातशत्रु होते हैं, उनको जैसे विद्युत् मेघ को वैसे शत्रु दलों को जलाने को समर्थ हो के महान् ऐश्वर्य्य को उत्पन्न करें ॥११॥ इस सूक्त में विद्वान् वेदपाठी और ब्रह्मचारी के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह आठवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ ब्रह्मचर्य्यानुष्ठानेन किं भवतीत्याह।

अन्वय:

हे वनस्पते यथा शतवल्शो वंशादिवृक्षविशेषो वर्द्धते तथा त्वं विरोह सुखं प्रणिनाय च यथा सहस्रवल्शा दूर्वादयो वर्द्धन्ते तथैव वयं विरुहेम यथाऽयं तेजमानः स्वधितिर्विद्युन्महते सौभगाय यन्त्वां वर्धयति तं वयमपि वर्धयेम ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वनस्पते) वनस्पतिरिव वर्त्तमान (शतवल्शः) शतानि वल्शा अंकुरा यस्य सः (वि) विशेषेण (रोह) वर्द्धयस्व (सहस्रवल्शाः) सहस्राङ्कुरा वनस्पतय इवाङ्गोपाङ्गैः सह वर्त्तमानाः (वि) (वयम्) (रुहेम) वर्द्धेमहि (यम्) (त्वाम्) (अयम्) (स्वधितिः) वज्रः (तेजमानः) तीक्ष्णीकृतः (प्रणिनाय) प्रकर्षेण प्रापय (महते) (सौभगाय) शोभनस्य धनस्य भावाय ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या ब्रह्मचर्य्यविद्यासुशिक्षाधर्मपुरुषार्थैर्युक्ताः सन्तः कार्य्यसिद्धये प्रयतन्ते ते वंशादयो वृक्षाइव सर्वतो वर्द्धन्ते तथा सुतीक्ष्णैः शस्त्रैः शत्रून् सञ्जित्याऽजातशत्रवः सन्ति तान् विद्युन्मेघमिव शत्रुदलानि दग्धुं समर्था भूत्वा महदैश्वर्यं जनयेयुरिति ॥११॥ अत्र विद्वच्छ्रोत्रियब्रह्मचारिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इत्यष्टमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ब्रह्मचर्य, विद्या, सुशिक्षा, धर्म व पुरुषार्थयुक्त असून कार्यसिद्धीसाठी प्रयत्न करतात ते बांबू इ. वनस्पतीप्रमाणे वाढतात. जसे सुंदर तीक्ष्ण शस्त्रांनी शत्रूंना जिंकून अजातशत्रू होता येते, जशी विद्युत मेघांना तसे शत्रूंना दग्ध करण्यास जे समर्थ असतात ते महान ऐश्वर्य उत्पन्न करतात. ॥ ११ ॥