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वृ॒षा॒यन्ते॑ म॒हे अत्या॑य पू॒र्वीर्वृष्णे॑ चि॒त्राय॑ र॒श्मयः॑ सुया॒माः। देव॑ होतर्म॒न्द्रत॑रश्चिकि॒त्वान्म॒हो दे॒वान्रोद॑सी॒ एह व॑क्षि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vṛṣāyante mahe atyāya pūrvīr vṛṣṇe citrāya raśmayaḥ suyāmāḥ | deva hotar mandrataraś cikitvān maho devān rodasī eha vakṣi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वृ॒षा॒ऽयन्ते॑। म॒हे। अत्या॑य। पू॒र्वीः। वृष्णे॑। चि॒त्राय॑। र॒श्मयः॑। सु॒ऽया॒माः। देव॑। हो॒तः॒। म॒न्द्रऽत॑रः। चि॒कि॒त्वान्। म॒हः। दे॒वान्। रोद॑सी॒ इति॑। आ। इ॒ह। व॒क्षि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:7» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:2» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् लोग क्या करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) प्रकाशमान (होतः) सबके लिये सुख देनेहारे विद्वान् (मन्द्रतरः) अतिआनन्दकारक (चिकित्वान्) चितानेहारे ! आप जैसे (सुयामाः) सुन्दर प्रहर आदि समयवाली (रश्मयः) किरणें (महे) बड़े (अत्याय) सब विद्याओं में व्यापनशील (चित्राय) आश्चर्य स्वभाववाले (वृष्णे) विद्या के प्रचारक विद्वान् के अर्थ (पूर्वीः) पहिले से वर्त्तमान प्रजाजनों को (वृषायन्ते) बैल के समान उत्साहित करती (रोदसी) सूर्य भूमि प्रकट करती हैं वैसे (इह) इस जगत् में (महः) महान् (देवान्) विद्वानों को (आ, वक्षि) अच्छे प्रकार प्राप्त कराइये ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य की किरणें प्रकाश से वृष्टि द्वारा सब प्रजा को सुखी करती हैं, वैसे ही विद्वान् लोग सब प्रजा जनों को विद्वान् कर सुन्दर ज्ञानयुक्त करते हैं ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्याह।

अन्वय:

हे होतर्देव मन्द्रतरश्चिकित्वांस्त्वं यथा सुयामा रश्मयो महेऽत्याय चित्राय वृष्णे विदुषे पूर्वीर्वृषायन्ते रोदसी प्रकटयन्ति तथेह महो देवानावक्षि ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषायन्ते) वृष इवाचरन्ति (महे) महते (अत्याय) सर्वविद्याव्यापनशीलाय (पूर्वीः) पूर्वं वर्त्तमानाः प्रजाः (वृष्णे) विद्यावर्षकाय (चित्राय) आश्चर्यस्वभावाय (रश्मयः) किरणाः (सुयामाः) शोभना यामाः प्रहरा येषु ते (देव) देदीप्यमान (होतः) सर्वेभ्यः सुखस्य दाता (मन्द्रतरः) अतिशयेनाह्लादकः (चिकित्वान्) विज्ञापकः (महः) महतः (देवान्) विदुषः (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (आ) (इह) अस्मिन् संसारे (वक्षि) समन्तात्प्रापय ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यकिरणाः प्रकाशेन वृष्टिद्वारा सर्वाः प्रजाः सुखयन्ति तथैव विद्वांसो विदुषः संपाद्य सर्वाः प्रजाः सुज्ञानाः कुर्वन्ति ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी सूर्याची किरणे प्रकाशाने वृष्टीद्वारे सर्व प्रजेला सुखी करतात तसेच विद्वान लोक सर्व प्रजेला विद्वान करून ज्ञानयुक्त करतात. ॥ ९ ॥