आ नो॑ मित्रावरुणा घृ॒तैर्गव्यू॑तिमुक्षतम्। मध्वा॒ रजां॑सि सुक्रतू॥
ā no mitrāvaruṇā ghṛtair gavyūtim ukṣatam | madhvā rajāṁsi sukratū ||
आ। नः॒। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। घृ॒तैः। गव्यू॑तिम्। उ॒क्ष॒त॒म्। मध्वा॑। रजां॑सि। सु॒क्र॒तू॒ इति॑ सुऽक्रतू॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में अध्यापक और उपदेशक के विषय को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अध्यापकोपदेशकविषयमाह।
यौ सुक्रतू मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिं रजांसि सिञ्चत इव मध्वा नोऽस्मानोक्षतं तौ वयं प्राणवत्प्रियौ मन्यामहे ॥१६॥