वांछित मन्त्र चुनें

ऋ॒तस्य॑ बु॒ध्न उ॒षसा॑मिष॒ण्यन्वृषा॑ म॒ही रोद॑सी॒ आ वि॑वेश। म॒ही मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य मा॒या च॒न्द्रेव॑ भा॒नुं वि द॑धे पुरु॒त्रा॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛtasya budhna uṣasām iṣaṇyan vṛṣā mahī rodasī ā viveśa | mahī mitrasya varuṇasya māyā candreva bhānuṁ vi dadhe purutrā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तस्य॑। बु॒ध्ने। उ॒षसा॑म्। इ॒ष॒ण्यन्। वृषा॑। म॒ही इति॑। रोद॑सी॒ इति॑। आ। वि॒वे॒श॒। म॒ही। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। मा॒या। च॒न्द्राऽइ॑व। भा॒नुम्। वि। द॒धे॒। पु॒रु॒ऽत्रा॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:61» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:8» मन्त्र:7 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:7


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब बिजुली और शिल्पियों के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो बिजुलीरूप अग्नि (बुध्ने) अन्तरिक्ष में (उषसाम्) प्रातःकालों और (ऋतस्य) सत्य के संबन्ध में (इषण्यन्) अपनी प्रेरणा की इच्छा करता हुआ सा (वृषा) वृष्टि का हेतु (मही) बड़ी (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (आ, विवेश) प्रविष्ट होता है और (मित्रस्य) मित्र (वरुणस्य) श्रेष्ठ पुरुष की (मही) बड़ी पूज्य (माया) बुद्धि (चन्द्रेव) सुवर्णों के सदृश (पुरुत्रा) बहुतरूपयुक्त (भानुम्) सूर्य्य को (विदधे) धारण करता है इससे उसको जान के कार्यों को सिद्ध करो ॥७॥
भावार्थभाषाः - जैसे विद्वानों की वाणी और बुद्धि ऐश्वर्य्य को देनेवाली हो और विद्याओं में प्रवेश करके सुखों को देती है, वैसे ही सर्वत्र प्रविष्ट हुई बिजुली जानी हुई कार्यों में प्रयुक्त होकर ऐश्वर्य्य को उत्पन्न करती है ॥७॥ इस सूक्त में प्रातःकाल स्त्री बिजुली और शिल्पीजनों के गुणवर्णन करने से इसके अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इकसठवाँ सूक्त और अष्टम वर्ग समाप्त हुआ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वच्छिल्पिगुणानाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यौ विद्युद्रूपोऽग्निः बुध्न उषसामृतस्येषण्यन्निव वृषा मही रोदसी आ विवेश मित्रस्य वरुणस्य मही माया चन्द्रेव पुरुत्रा भानुं विदधे अतस्तं विज्ञाय कार्य्याणि साध्नुत ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतस्य) सत्यस्य (बुध्ने) अन्तरिक्षे (उषसाम्) प्रभातवेलानाम् (इषण्यन्) आत्मन इषणं प्रेरणमिच्छन्निव (वृषा) वृष्टिहेतुः (मही) महत्यौ (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (आ) (विवेश) आविशति (मही) महती पूज्या (मित्रस्य) सुहृदः (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (माया) प्रज्ञा (चन्द्रेव) सुवर्णानीव। चन्द्रमिति हिरण्यना०। निघं० १। २। (भानुम्) सूर्य्यम् (विदधे) विदधाति (पुरुत्रा) पुरुरूपम् ॥७॥
भावार्थभाषाः - यथा विदुषां वाणी प्रज्ञा चैश्वर्य्यप्रदा भूत्वा विद्यासु प्रविश्य सुखानि प्रयच्छति तथैव सर्वत्र प्रविष्टा विद्युद् विज्ञाता कार्य्येषु प्रयुक्ता सत्यैश्वर्य्यं जनयतीति ॥७॥ अत्रोषःस्त्रीविद्युच्छिल्पिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकाधिकषष्टितमं सूक्तम् अष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी विद्वानाची वाणी, बुुद्धी ऐश्वर्य प्रदान करणारी असते व विद्येमुळे सुख देणारी ठरते. तसेच सर्वत्र प्रविष्ट असलेली विद्युत कार्यात प्रयुक्त होऊन ऐश्वर्य उत्पन्न करते. ॥ ७ ॥