उषो॒ वाजे॑न वाजिनि॒ प्रचे॑ताः॒ स्तोमं॑ जुषस्व गृण॒तो म॑घोनि। पु॒रा॒णी दे॑वि युव॒तिः पुर॑न्धि॒रनु॑ व्र॒तं च॑रसि विश्ववारे॥
uṣo vājena vājini pracetāḥ stomaṁ juṣasva gṛṇato maghoni | purāṇī devi yuvatiḥ puraṁdhir anu vrataṁ carasi viśvavāre ||
उषः॑। वाजे॑न। वा॒जि॒नि॒। प्रऽचे॑ताः। स्तोम॑म्। जु॒ष॒स्व॒। गृ॒ण॒तः। म॒घो॒नि॒। पु॒रा॒णी। दे॒वि॒। यु॒व॒तिः। पुर॑म्ऽधिः। अनु॑। व्र॒तम्। च॒र॒सि॒। वि॒श्व॒ऽवा॒रे॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सात ऋचावाले एकसठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में प्रातःकाल की वेला की उपमा से स्त्री के गुणों को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ प्रातर्वेलोपमया स्त्रीगुणानाह।
हे वाजिनि मघोनि देवि विश्ववारे स्त्रि त्वमुष इव वाजेन प्रचेताः सती गृणतो मम स्तोमं जुषस्व यतः पुराणी पुरन्धिर्युवतिस्सती व्रतमनुचरसि तस्माद्धृद्यासि ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात प्रातःकाळ, स्त्री, विद्युत व कारागीर लोकांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.