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अ॒भि यो म॑हि॒ना दिवं॑ मि॒त्रो ब॒भूव॑ स॒प्रथाः॑। अ॒भि श्रवो॑भिः पृथि॒वीम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhi yo mahinā divam mitro babhūva saprathāḥ | abhi śravobhiḥ pṛthivīm ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भि। यः। म॒हि॒ना। दिव॑म्। मि॒त्रः। ब॒भूव॑। स॒ऽप्रथाः॑। अ॒भि। श्रवः॑ऽभिः। पृ॒थि॒वीम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:59» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:6» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मित्रपन से ईश्वर के पदार्थरचन और ईश्वरसेवन को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (सप्रथाः) विस्तारयुक्त जगत् के साथ वर्त्तमान वा (मित्रः) मित्र के सदृश वर्त्तमान जगदीश्वर अपनी (महिना) महिमा से (दिवम्) प्रकाशमय सूर्य को रचके (अभि) सन्मुख (बभूव) होता वा (श्रवोभिः) अन्न आदि पदार्थों के साथ (पृथिवीम्) भूमि को रचके (अभि) सन्मुख होता है, उसकी नित्य सेवा करो ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो बड़े सामर्थ्य से सूर्य्य और पृथिवी आदि विस्तार सहित संसार को रच और अन्तर्य्यामिरूप से सबको जान और धारण करके नियम में लाता है, वही उपासना करने के योग्य है ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मित्रत्वेनेश्वरस्य पदार्थरचनं तत्सेवनं चाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यस्सप्रथा मित्रो जगदीश्वरः स्वस्य महिना दिवं निर्मायाऽभिबभूव श्रवोभिः पृथिवीं रचयित्वाऽभिबभूव तं नित्यं सेवध्वम् ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभि) आभिमुख्ये (यः) (महिना) महिम्ना (दिवम्) प्रकाशमयं सूर्य्यम् (मित्रः) सखेव वर्त्तमानः (बभूव) भवति (सप्रथाः) प्रथसा विस्तृतेन जगता सह वर्त्तमानः (अभि) (श्रवोभिः) अन्नादिभिस्सह (पृथिवीम्) भूमिम् ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यो महासामर्थ्येन सूर्य्यपृथिव्यादिकं सविस्तरं जगन्निर्मायान्तर्यामिरूपेण सर्वं विज्ञाय धृत्वा नियमयति स एवोपासितुं योग्यः ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जो अत्यंत सामर्थ्ययुक्त असून सूर्य व पृथ्वी इत्यादी संसार निर्माण करून अंतर्यामीरूपाने सर्वांना जाणून व धारण करून नियमात ठेवतो, तोच उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ७ ॥