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प्र स मि॑त्र॒ मर्तो॑ अस्तु॒ प्रय॑स्वा॒न्यस्त॑ आदित्य॒ शिक्ष॑ति व्र॒तेन॑। न ह॑न्यते॒ न जी॑यते॒ त्वोतो॒ नैन॒मंहो॑ अश्नो॒त्यन्ति॑तो॒ न दू॒रात्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra sa mitra marto astu prayasvān yas ta āditya śikṣati vratena | na hanyate na jīyate tvoto nainam aṁho aśnoty antito na dūrāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। सः। मि॒त्र॒। मर्तः॑। अ॒स्तु॒। प्रय॑स्वान्। यः। ते॒। आ॒दि॒त्य॒। शिक्ष॑ति। व्र॒तेन॑। न। ह॒न्य॒ते॒। न। जी॒य॒ते॒। त्वाऽऊ॑तः। न। ए॒न॒म्। अंहः॑। अ॒श्नो॒ति॒। अन्ति॑तः। न। दू॒रात्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:59» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर और आप्त विद्वान् के मित्रपन को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्र) मित्र यथार्थवक्ता विद्वान् वा जगदीश्वर ! (यः) जो (मर्त्तः) मनुष्य (प्रयस्वान्) प्रयत्नवाला (अस्तु) हो। और हे (आदित्य) अविनाशिस्वरूप ! जो मनुष्य (ते) आपके (व्रतेन) कर्म से जैसे वैसे अन्य जनों को (प्र, शिक्षति) विद्याग्रहण कराता वा आप ग्रहण करता है (सः) वह (त्वोतः) आपसे रक्षित अन्य जनों से (न) न (हन्यते) मारा जाता (न) और न (जीयते) जीता जाता है (एनम्) इसको (अन्तितः) समीप से (अंहः) पाप (न) नहीं (अश्नोति) प्राप्त होता और (न) न इसको (दूरात्) दूर से पाप प्राप्त होता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य यथार्थवक्ता और स्वामी के गुणकर्म और स्वभाव के सदृश अपने गुणकर्म और स्वभावों को करके सत्य न्याय से सबको शिक्षा करते हैं, वे पापरहित धर्मात्मा होकर यथार्थवक्ता और स्वामी से रक्षित हुए दुष्टों से नाश तथा पराजय को प्राप्त नहीं हो सकते और न वे दूर वा समीप से पक्षपात से पाप का सेवन करते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वराप्तमित्रतामाह।

अन्वय:

हे मित्र आप्त विद्वञ्जगदीश्वर वा यो मर्त्तः प्रयस्वानस्तु हे आदित्य ! यो मनुष्यस्ते व्रतेनेवाऽन्यात्प्रशिक्षति स त्वोतोऽन्यैर्न हन्यते न जीयते। एनमन्तितोंऽहो नाऽश्नोति नैनं दूरादंहोऽश्नोति ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (सः) (मित्र) सखे (मर्त्तः) मनुष्यः (अन्तु) भवतु (प्रयस्वान्) प्रयत्नवान् (यः) (ते) तव (आदित्य) अविनाशिस्वरूप (शिक्षति) विद्यां गृह्णाति ग्राहयति वा। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (व्रतेन) कर्मणेव (न) (हन्यते) (न) (जीयते) जेतुं शक्यते (त्वोतः) त्वया रक्षितः (न) (एनम्) (अंहः) पापम् (अश्नोति) प्राप्नोति (अन्तितः) समीपात् (न) (दूरात्) ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या आप्तेश्वरयोर्गुणकर्मस्वभाववत्स्वगुणकर्मस्वभावान्कृत्वा सत्यन्यायेन सर्वाञ्च्छिक्षन्ते ते निष्पापा धर्मात्मानो भूत्वाऽऽप्तेश्वराभ्यां रक्षिताः सन्तो दुष्टैर्हन्तुं पराजेतुं च न शक्यते। नैव ते दूरात्समीपाद्वा पक्षपातेन पापं भजन्ते ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्वान व ईश्वर यांच्या गुण, कर्म, स्वभावाप्रमाणे आपले गुण कर्म स्वभाव बनवून सत्य न्यायपूर्वक सर्वांना शिक्षण देतात ते निष्पाप धर्मात्मा बनून विद्वानांकडून व ईश्वराकडून रक्षित असतात. त्यांचा दुष्टांकडून नाश व पराजय होऊ शकत नाही. पक्षपात करून ते पापाचे सेवन करू शकत नाहीत. ॥ २ ॥