प्र स मि॑त्र॒ मर्तो॑ अस्तु॒ प्रय॑स्वा॒न्यस्त॑ आदित्य॒ शिक्ष॑ति व्र॒तेन॑। न ह॑न्यते॒ न जी॑यते॒ त्वोतो॒ नैन॒मंहो॑ अश्नो॒त्यन्ति॑तो॒ न दू॒रात्॥
pra sa mitra marto astu prayasvān yas ta āditya śikṣati vratena | na hanyate na jīyate tvoto nainam aṁho aśnoty antito na dūrāt ||
प्र। सः। मि॒त्र॒। मर्तः॑। अ॒स्तु॒। प्रय॑स्वान्। यः। ते॒। आ॒दि॒त्य॒। शिक्ष॑ति। व्र॒तेन॑। न। ह॒न्य॒ते॒। न। जी॒य॒ते॒। त्वाऽऊ॑तः। न। ए॒न॒म्। अंहः॑। अ॒श्नो॒ति॒। अन्ति॑तः। न। दू॒रात्॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ईश्वर और आप्त विद्वान् के मित्रपन को अगले मन्त्र में कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथेश्वराप्तमित्रतामाह।
हे मित्र आप्त विद्वञ्जगदीश्वर वा यो मर्त्तः प्रयस्वानस्तु हे आदित्य ! यो मनुष्यस्ते व्रतेनेवाऽन्यात्प्रशिक्षति स त्वोतोऽन्यैर्न हन्यते न जीयते। एनमन्तितोंऽहो नाऽश्नोति नैनं दूरादंहोऽश्नोति ॥२॥