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मि॒त्रो जना॑न्यातयति ब्रुवा॒णो मि॒त्रो दा॑धार पृथि॒वीमु॒त द्याम्। मि॒त्रः कृ॒ष्टीरनि॑मिषा॒भि च॑ष्टे मि॒त्राय॑ ह॒व्यं घृ॒तव॑ज्जुहोत॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mitro janān yātayati bruvāṇo mitro dādhāra pṛthivīm uta dyām | mitraḥ kṛṣṭīr animiṣābhi caṣṭe mitrāya havyaṁ ghṛtavaj juhota ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मि॒त्रः। जना॑न्। या॒त॒य॒ति॒। ब्रु॒वा॒णः। मि॒त्रः। दा॒धा॒र॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। मि॒त्रः। कृ॒ष्टीः। अनि॑ऽमिषा। अ॒भि। च॒ष्टे॒। मि॒त्राय॑। ह॒व्यम्। घृ॒तऽव॑त्। जु॒हो॒त॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:59» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब नव ऋचावाले उनसठवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में मित्रगुणों का उपदेश करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (ब्रुवाणः) उपदेश से प्रेरणा करता हुआ (मित्रः) सबका मित्रजन (जनान्) मनुष्यों को (अनिमिषा) दिन और रात्रि में होनेवाली क्रिया से (यातयति) पुरषार्थ कराता जो (मित्रः) सूर्य के समान परमात्मा मित्र (पृथिवीम्) भूमि (उत) और (द्याम्) सूर्यलोक को दिन और रात्रि में होनेवाली क्रिया से (दाधार) धारण करता और जो (मित्रः) सबका मित्र (कृष्टीः) खींचने वा जोतनेवाली मनुष्यरूप प्रजाओं को दिन और रात्रि में होनेवाली क्रिया से (अभि, चष्टे) सब प्रकार उपदेश देता है उस (मित्राय) उक्त सर्वव्यवहार को चलानेवाले मित्र के लिये (घृतवत्) बहुत घृत आदि से युक्त (हव्यम्) हविष्यान्न (जुहोत) दीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य लोग सत्य का उपदेश करने सत्य विद्या देने मित्रता रखने सबको धारण करनेवाले परमात्मा और सबके व्यवस्थापक राजा का सत्कार करते हैं, वे ही सबके मित्र हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मित्रगुणानाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यो ब्रुवाणो मित्रो जनाननिमिषा यातयति यो मित्रः पृथिवीमुत द्यामनिमिषा दाधार यो मित्रः कृष्टीरनिमिषाऽभिचष्टे तस्मै मित्राय घृतवद्धव्यं जुहोत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रः) सखा (जनान्) (यातयति) पुरुषार्थयति (ब्रुवाणः) उपदेशेन प्रेरयन् (मित्रः) सूर्य इव परमात्मा (दाधार) धरति (पृथिवीम्) भूमिम् (उत) अपि (द्याम्) सूर्यलोकम् (मित्रः) सर्वस्य सुहृद्राजा (कृष्टीः) कर्षिका मनुष्यप्रजाः (अनिमिषा) अहर्निशजन्यया क्रियया (अभि) (चष्टे) अभितः ख्याति (मित्राय) वह्नये (हव्यम्) होतुमर्हम् (घृतवत्) बहुघृतादियुक्तं हविः (जुहोत) दत्त ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या सत्योपदेशकं सत्यविद्याप्रदं सखायं सर्वाधारकं परमात्मानं सर्वव्यवस्थापकं राजानं सत्कुर्वन्ति त एव सर्वस्य सुहृदः सन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

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भावार्थभाषाः - जी माणसे सत्याचा उपदेशक, सत्यविद्याप्रद, सखा, सर्वधारक परमात्मा व सर्वांचा व्यवस्थापक राजाचा सत्कार करतात तेच सर्वांचे सुहृद असतात. ॥ १ ॥