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इ॒मां च॑ नः पृथि॒वीं वि॒श्वधा॑या॒ उप॑ क्षेति हि॒तमि॑त्रो॒ न राजा॑। पु॒रः॒ सदः॑ शर्म॒सदो॒ न वी॒रा म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imāṁ ca naḥ pṛthivīṁ viśvadhāyā upa kṣeti hitamitro na rājā | puraḥsadaḥ śarmasado na vīrā mahad devānām asuratvam ekam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒माम्। च॒। नः॒। पृ॒थि॒वीम्। वि॒श्वऽधा॑याः। उप॑। क्षे॒ति॒। हि॒तऽमि॑त्रः। न। राजा॑। पु॒रः॒ऽसदः॑। श॒र्म॒ऽसदः॑। न। वी॒राः। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55» मन्त्र:21 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:31» मन्त्र:6 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:21


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (नः) हम लोगों के (इमाम्) इस अन्तरिक्ष (च) और (पृथिवीम्) भूमि को समीप (विश्वधायाः) सम्पूर्ण को धारण करनेवाली पृथिवी उसके (हितमित्रः) मित्रों को धारण करनेवाले (राजा) विद्या और विनय से प्रकाशमान अधिपति के (न) सदृश (उप, क्षेति) वसता है और (पुरःसदः) आगे चलने और (शर्मसदः) गृह में ठहरनेवाले (वीराः) क्षात्रधर्म से युक्त शूरों के (न) तुल्य विजय देता है वही (देवानाम्) प्रकाशमान राजा लोगों में (महत्) बड़ा (एकम्) सहायरहित (असुरत्वम्) शत्रुओं को दूर करनेवाला हम लोगों से उपासना करने योग्य है ॥२१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो धर्मात्मा राजा के सदृश संसार में निवास कराता और धनुर्वेद के जाननेवाले वीर के सदृश विजय दिलाता है, वही ब्रह्म हम लोगों को उपासना करने योग्य है ॥२१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यो न इमां द्यां पृथिवीं च विश्वधाया हितमित्रो राजा न उप क्षेति पुरःसदः शर्मसदो वीरा न विजयं ददाति तदेव देवानां महदेकमसुरत्वमस्माभिरुपासनीयमस्ति ॥२१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमाम्) (च) (नः) अस्मान् (पृथिवीम्) (विश्वधायाः) या विश्वं दधाति तस्याः (उप) (क्षेति) उपवसति (हितमित्रः) हितानि धृतानि मित्राणि येन सः (न) इव (राजा) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमानः (पुरःसदः) ये पुरःसीदन्ति ते (शर्मसदः) ये शर्मणि गृहे सीदन्ती ते (न) इव (वीराः) क्षात्रधर्मयुक्ताः (महत्) (देवानाम्) देदीप्यमानानां राज्ञाम् (असुरत्वम्) शत्रूणां प्रक्षेप्तृत्वम् (एकम्) असहायम् ॥२१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यो धर्मात्मराजवज्जगति निवासयति धनुर्वेदविद्वीरवद्विजयं दापयति तदेव ब्रह्माऽस्माकमुपास्यमस्तीति ॥२१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जो धर्मात्मा राजाप्रमाणे जगात निवास करवितो व धनुर्वेद जाणणाऱ्या वीराप्रमाणे विजय देववितो तोच ब्रह्म (परमात्मा) आम्ही उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ २१ ॥