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म॒हत्तद्वः॑ कवय॒श्चारु॒ नाम॒ यद्ध॑ देवा॒ भव॑थ॒ विश्व॒ इन्द्रे॑। सख॑ ऋ॒भुभिः॑ पुरुहूत प्रि॒येभि॑रि॒मां धियं॑ सा॒तये॑ तक्षता नः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahat tad vaḥ kavayaś cāru nāma yad dha devā bhavatha viśva indre | sakha ṛbhubhiḥ puruhūta priyebhir imāṁ dhiyaṁ sātaye takṣatā naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒हत्। तत्। वः॒। क॒व॒यः॒। चारु॑। नाम॑। यत्। ह॒। दे॒वाः॒। भव॑थ। विश्वे॑। इन्द्रे॑। सखाः॑। ऋ॒भुऽभिः॑। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। प्रि॒येभिः॑। इ॒माम्। धिय॑म्। सा॒तये॑। त॒क्ष॒त॒। नः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:54» मन्त्र:17 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (कवयः) विद्वानों ! (वः) आप लोगों का (यत्) जो (महत्) बड़ा (चारु) सुन्दर (नाम) नाम है (तत्) वह और उससे युक्त (विश्वे) संम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् और (ह) निश्चय आप लोग (भवथ) होओ (प्रियेभिः) अपने सदृश प्रिय (ऋतुभिः) बुद्धिमानों के साथ (इन्द्रे) अत्यन्त ऐश्वर्य्य वा राजा में (सातये) सत्य और असत्य के विचार के लिये (नः) हम लोगों की (इमाम्) इस (धियम्) बुद्धि की (तक्षत) रक्षा करो। और हे (पुरुहूत) बहुतों से प्रशंसित हुए राजेन्द्र ! आप इनके साथ (सखा) मित्र हुए इस बुद्धि को प्राप्त होओ ॥१७॥
भावार्थभाषाः - उन लोगों के ही नाम प्रशंसा करने योग्य और प्रसिद्ध होवें कि जो विद्वान् और अविद्वानों में मित्रता को प्राप्त होकर धर्म और अधर्म के विचार के लिये उत्तम बुद्धि सबके लिये देते हैं ॥१७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे कवयो वो यन्महच्चारु नाम नामास्ति तत्तेन युक्ता विश्वे देवा ह यूयं भवथ। प्रियेभिर्ऋतुभिः सहेन्द्रे सातये न इमां धियं तक्षत। हे पुरुहूत राजेन्द्र त्वमेतैः सह सखा सन्नेतां प्रज्ञां प्राप्नुहि ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (महत्) महान् (तत्) (वः) युष्माकम् (कवयः) विपश्चितः (चारु) सुन्दरम् (नाम) (यत्) (ह) किल (देवाः) विद्वांसः (भवथ) (विश्वे) (इन्द्रे) परमैश्वर्ये राज्ञि वा (सखा) सुहृत् (ऋतुभिः) मेधाविभिः सह (पुरुहूत) बहुभिः प्रशंसित (प्रियोभिः) स्वात्मवत् प्रियैः (इमाम्) प्रत्यक्षाम् (धियम्) प्रज्ञाम् (सातये) सत्याऽसत्ययोर्विवेकाय (तक्षत) रक्षत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्माकम् ॥१७॥
भावार्थभाषाः - तेषामेव नामानि प्रशंसितानि प्रसिद्धानि स्युर्ये विद्वत्स्वविद्वत्सु मैत्रीमासाद्य धर्माऽधर्मविवेकाय शुद्धां प्रज्ञां सर्वेभ्यः प्रयच्छन्ति ॥१७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - त्याच लोकांचे नाव प्रशंसनीय व प्रसिद्ध व्हावे की जे विद्वान व अविद्वानांमध्ये मैत्री करून धर्म व अधर्माचा विचार करण्यासाठी सर्वांना शुद्ध बुद्धी देतात. ॥ १७ ॥