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इ॒मे इ॑न्द्र भर॒तस्य॑ पु॒त्रा अ॑पपि॒त्वं चि॑कितु॒र्न प्र॑पि॒त्वम्। हि॒न्वन्त्यश्व॒मर॑णं॒ न नित्यं॒ ज्या॑वाजं॒ परि॑ णयन्त्या॒जौ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ima indra bharatasya putrā apapitvaṁ cikitur na prapitvam | hinvanty aśvam araṇaṁ na nityaṁ jyāvājam pari ṇayanty ājau ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मे। इ॒न्द्र॒। भ॒र॒तस्य॑। पु॒त्राः। अ॒प॒ऽपि॒त्वम्। चि॒कि॒तुः॒। न। प्र॒ऽपि॒त्वम्। हि॒न्वन्ति॑। अश्व॑म्। अर॑णम्। न। नित्य॑म्। ज्या॒ऽवाज॑म्। परि॑। न॒य॒न्ति॒। आ॒जौ॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» मन्त्र:24 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:24


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त करनेवाले ! आपकी सेना के (भरतस्य) रक्षा करने और (चिकितुः) जाननेवाले के (न) तुल्य (इमे) ये मेरे (पुत्राः) उत्तम प्रकार शिक्षा को प्राप्त सन्तानों के सदृश सेवक लोग (अपपित्वम्) नाश और (प्रपित्वम्) उत्तम प्रकार प्राप्त कराने को (अश्वम्) घोड़े को (अरणम्) प्रेरणा किये हुए के (न) तुल्य (हिन्वन्ति) बढ़ाते हैं और (आजौ) संग्राम में (ज्यावाजम्) धनुष् की ताँत के शब्द को (नित्यम्) नित्य (परि) सब प्रकार (नयन्ति) प्राप्त करते हैं, उसकी और उनकी आप अपने आत्मा के सदृश रक्षा करो ॥२४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजा आदि अपने नाश और वृद्धि को जानते हैं, सेना में वर्त्तमान साध्यक्ष सेवकों को युद्ध कर्म में चतुर और अनुरक्तों का पुत्र के सदृश पालन करते हैं, उनकी सदा ही वृद्धि होती है, पराजय कहाँ से होवे ॥२४॥। इस सूक्त में बिजुली, मेघ, विद्वान्, राजा, प्रजा और सेना के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह तिरपनवाँ सूक्त और तेईसवाँ वर्ग तीसरे मण्डल में चौथा अनुवाक समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! तव सेनाया भरतस्य चिकितुर्न य इमे पुत्रा इवाऽपपित्वं प्रपित्वमश्वमरणं न हिन्वन्त्याजौ ज्यावाजं नित्यं परिणयन्ति ताँश्च त्वं स्वात्मवद्रक्ष ॥२४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमे) (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययोजक (भरतस्य) सेनाया धर्त्तू रक्षकस्य (पुत्राः) सुशिक्षितास्तनया इव भृत्याः (अपपित्वम्) अपचयम् (चिकितुः) विज्ञातुः (न) इव (प्रपित्वम्) प्रकृष्टं प्रापणम् (हिन्वन्ति) वर्धयन्ति (अश्वम्) तुरङ्गम् (अरणम्) प्रेरितम् (न) इव (नित्यम्) (ज्यावाजम्) ज्यायाः शब्दम् (परि) सर्वतः (नयन्ति) (आजौ) सङ्ग्रामे ॥२४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये राजादयः स्वह्रासवृद्धी जानन्ति सेनास्थान् साध्यक्षान् भृत्यान् युद्धकर्मणि कुशलाननुरक्तान् पुत्रवत्पालयन्ति तेषां सदैव वृद्धिर्भवति पराजयः कुतो भवेदिति ॥२४॥ अत्र विद्युन्मेघविद्वद्राजप्रजासेनाकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिपञ्चाशत्तमं सूक्तं त्रयोविंशो वर्गस्तृतीये मण्डले चतुर्थोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजे इत्यादी आपला नाश व वृद्धी जाणतात, (युद्ध कर्मातील चतुर) सेनेतील सेवकांचे पुत्राप्रमाणे पालन करतात त्यांची सदैव वृद्धी होते. (त्यांचा) पराजय कसा होणार? ॥ २४ ॥