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तिष्ठा॒ सु कं॑ मघव॒न्मा परा॑ गाः॒ सोम॑स्य॒ नु त्वा॒ सुषु॑तस्य यक्षि। पि॒तुर्न पु॒त्रः सिच॒मा र॑भे त॒ इन्द्र॒ स्वादि॑ष्ठया गि॒रा श॑चीवः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tiṣṭhā su kam maghavan mā parā gāḥ somasya nu tvā suṣutasya yakṣi | pitur na putraḥ sicam ā rabhe ta indra svādiṣṭhayā girā śacīvaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तिष्ठ॑। सु। क॒म्। म॒घ॒ऽव॒न्। मा। परा॑। गाः॒। सोम॑स्य। नु। त्वा॒। सुऽसु॑तस्य। य॒क्षि॒। पि॒तुः। न। पु॒त्रः। सिच॑म्। आ। र॒भे॒। ते॒। इन्द्र॑। स्वादि॑ष्ठया। गि॒रा। श॒ची॒ऽवः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) बहुत धनयुक्त (इन्द्र) ऐश्वर्य के करनेवाले ! आप (सुषुतस्य) उत्तम प्रकार सिद्ध (सोमस्य) बड़ी ओषधियों के समूहरूप ऐश्वर्य्य के समीप के (कम्) सुख को (सु, तिष्ठ) करिये। और हे (शचीवः) उत्तम प्रजाओं से युक्त जैसे (ते) आपकी (स्वादिष्ठया) अत्यन्त मधुर आदि रस से युक्त (गिरा) वाणी से (सिञ्चनम्) सिंचन का (आ, रभे) प्रारम्भ करें (त्वा) आपको (नु) शीघ्र (पुत्रः) पुत्र (पितुः) पिता से (न) नहीं (आ, रभे) प्रारम्भ करते हैं, वह आप हम लोगों को (यक्षि) प्राप्त होइये और हम लोगों से (मा) नहीं (परा, गाः) दूर जाइये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जैसे पुत्र पिता की सेवा करता है, वैसे ही वृद्ध विद्वानों की सेवा करो और कभी धर्म से पृथक् न होओ, अन्य जनों को सुखी करके सुखी होओ ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजविषयमाह।

अन्वय:

हे मघवन्निन्द्र ! त्वं सुषुतस्य सोमस्य सकाशात्कं सुतिष्ठ। हे शचीवो यथा ते स्वादिष्ठया गिरा सिचमा रभे त्वा नु पुत्रः पितुर्नाऽऽरभे स त्वमस्मान्यक्ष्यस्मन्मा परा गाः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तिष्ठ)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सु) (कम्) सुखम् (मघवन्) पुष्कलधनवन् (मा) निषेधे (परा) (गाः) दूरं गच्छेः (सोमस्य) महौषधिगणस्यैश्वर्यस्य (नु) सद्यः (त्वा) त्वाम् (सुषुतस्य) यथावत्सिद्धस्य (यक्षि) सङ्गच्छस्व (पितुः) जनकस्य (न) इव (पुत्रः) (सिचम्) (आ) (रभे) (ते) तव (इन्द्र) ऐश्वर्यकारक (स्वादिष्ठया) अतिशयेन मधुरादिरसयुक्तया (गिरा) वाण्या (शचीवः) प्रशस्ताः शचीः प्रजा विद्यन्ते यस्य तत्सम्बुद्धौ ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! यथा पुत्रः पितरं सेवते तथैव वृद्धान् विदुषः सेवस्व। कदाचिद्धर्मात्पृथग् न भवेरन्यान् सुखिनः कृत्वा सुखी भव ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा! जसा पुत्र पित्याची सेवा करतो तशीच वृद्ध विद्वानांची सेवा कर व कधी धर्मापासून पृथक होऊ नको. इतरांना सुखी करून सुखी हो. ॥ २ ॥