अ॒भि व्य॑यस्व खदि॒रस्य॒ सार॒मोजो॑ धेहि स्पन्द॒ने शिं॒शपा॑याम्। अक्ष॑ वीळो वीळित वी॒ळय॑स्व॒ मा यामा॑द॒स्मादव॑ जीहिपो नः॥
abhi vyayasva khadirasya sāram ojo dhehi spandane śiṁśapāyām | akṣa vīḻo vīḻita vīḻayasva mā yāmād asmād ava jīhipo naḥ ||
अ॒भि। व्य॒य॒स्व॒। ख॒दि॒रस्य॑। सार॑म्। ओजः॑। धे॒हि॒। स्प॒न्द॒ने। शिं॒शपा॑याम्। अक्ष॑। वी॒ळो॒ इति॑। वी॒ळि॒त॒। वी॒ळय॑स्व। मा। यामा॑त्। अ॒स्मात्। अव॑। जी॒हि॒पः॒। नः॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे अक्ष ! त्वमस्मासु खदिरस्य सारमिवोजो धेहि शिंशपायां स्पन्दन इवाऽभिव्ययस्व। हे वीळो वीळित नोऽस्मान् वीळयस्वाऽस्माद्यामादस्मान्माव जीहिपः ॥१९॥