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प्रति॑ धा॒ना भ॑रत॒ तूय॑मस्मै पुरो॒ळाशं॑ वी॒रत॑माय नृ॒णाम्। दि॒वेदि॑वे स॒दृशी॑रिन्द्र॒ तुभ्यं॒ वर्ध॑न्तु त्वा सोम॒पेया॑य धृष्णो॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prati dhānā bharata tūyam asmai puroḻāśaṁ vīratamāya nṛṇām | dive-dive sadṛśīr indra tubhyaṁ vardhantu tvā somapeyāya dhṛṣṇo ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रति॑। धा॒नाः। भ॒र॒त॒। तूय॑म्। अ॒स्मै॒। पु॒रो॒ळाश॑म्। वी॒रऽत॑माय। नृ॒णाम्। दि॒वेऽदि॑वे। स॒ऽदृशीः॑। इ॒न्द्र॒। तुभ्य॑म्। वर्ध॑न्तु। त्वा॒। सो॒म॒ऽपेया॑य। धृ॒ष्णो॒ इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:52» मन्त्र:8 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब यज्ञ के अन्न के इकट्ठे करने के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (धृष्णो) वाणी में चतुर (इन्द्र) दुष्टों के समूह के नाश करनेवाले ! जो (सदृशीः) तुल्य स्वरूपवाली सेना (दिवेदिवे) प्रतिदिन (नृणाम्) अग्रणी पुरुषों के मध्य में (वीरतमाय) अत्यन्त श्रेष्ठ वीर पुरुष (सोमपेयाय) पान किया सोम के रस का जिसने उन आपके लिये (वर्द्धन्तु) वृद्धि को प्राप्त हों और जो विद्वान् लोग (त्वा) आपके लिये वृद्धि करें उनकी आप वृद्धि करो और हे विद्वानों ! आप लोग (अस्मै) इसके लिये (धानाः) भूँजे हुए अन्न और (पुरोळाशम्) उत्तमप्रकार संस्कारयुक्त अन्नविशेष और जो कि (तूयम्) शीघ्र सुखकारक उसको (प्रतिभरत) पूर्ण कीजिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - सम्पूर्ण राजजन और प्रजा के जन राज्य की वृद्धि के लिये सम्पूर्ण पदार्थों को इकट्ठे करें, उनसे उत्तम प्रकार परीक्षित वीर सेनाओं को करके और दुष्ट पुरुषों का पराजय और श्रेष्ठ पुरुषों का विजय करके प्रतिदिन आनन्द करना चाहिये ॥८॥ इस सूक्त में राजा प्रजा और यज्ञान्नसंस्कारादि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जानना चाहिये ॥ यह बावनवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ यज्ञान्नसञ्चयनविषयमाह।

अन्वय:

हे धृष्णो इन्द्र ! याः सदृशीः सेना दिवदिवे नृणां वीरतमाय सोमपेयाय तुभ्यं वर्द्धन्तु। ये विद्वांसस्त्वा वर्द्धयन्तु ताँस्त्वं वर्धयस्व। हे विद्वांसो यूयमस्मै धानाः पुरोळाशं च तूयं प्रति भरत ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रति) (धानाः) (भरत) (तूयम्) तूर्णं सुखकरम् (अस्मै) (पुरोळाशम्) (वीरतमाय) अत्युत्तमाय वीराय (नृणाम्) नायकानां मध्ये (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (सदृशीः) समानस्वरूपाः सेनाः (इन्द्र) दुष्टदलविदारक (तुभ्यम्) (वर्द्धन्तु) वर्धन्ताम्। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (त्वा) त्वाम् (सोमपेयाय) पेयः सोमो येन तस्मै (धृष्णो) प्रगल्भ ॥८॥
भावार्थभाषाः - सर्वे राजजनाः प्रजाजना राज्योन्नतये सर्वान् सम्भारान् सञ्चिन्वन्तु तैः सुपरीक्षिता वीरसेनाः सम्पाद्य दुष्टानां पराजयं श्रेष्ठानां विजयं कृत्वा प्रतिदिनमानन्दयितव्यमिति ॥८॥ अत्र राजप्रजायज्ञाऽन्नसंस्कारादिवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति द्वापञ्चाशत्तमं सूक्तं अष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व राजजनांनी व प्रजाजनांनी राज्याच्या वृद्धीसाठी संपूर्ण पदार्थ एकत्र करावेत. तसेच त्यांनी उत्तम प्रकारे परीक्षित वीर सेनेद्वारे दुष्ट पुरुषांचा (नाश) पराजय व श्रेष्ठ पुरुषांचा विजय करून प्रत्येक दिवशी आनंद घ्यावा. ॥ ८ ॥