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पु॒रो॒ळाशं॑ च नो॒ घसो॑ जो॒षया॑से॒ गिर॑श्च नः। व॒धू॒युरि॑व॒ योष॑णाम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

puroḻāśaṁ ca no ghaso joṣayāse giraś ca naḥ | vadhūyur iva yoṣaṇām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒रो॒ळास॑म्। च॒। नः॒। घसः॑। जो॒षया॑से। गिरः॑। च॒। नः॒। व॒धू॒युःऽइ॑व। योष॑णाम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:52» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! आप (नः) हम लोगों के (पुरोळाशम्) प्रथम देने के योग्य का (घसः) भक्षण करो और हम लोगों के लिये भक्षण कराओ (च) और (योषणाम्) अपनी स्त्री को (वधूयुरिव) अपनी स्त्री विषयिणी इच्छा करनेवाले के सदृश (नः) हम लोगों की (जोषयासे) सेवा करो (च) और हम लोग आपकी (गिरः) वाणियों का (जोषयेम) सेवन करैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजा और प्रजाजन आपस के ऐश्वर्य्य को अपना ही समझें और जैसे स्त्री की कामना करनेवाला पुरुष प्रिया स्त्री को प्राप्त होकर आनन्दित होता है, वैसे ही राजा धर्म करनेवाली प्रजाओं को प्राप्त कर निरन्तर प्रसन्न होवें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! राजँस्त्वं नः पुरोळाशं घसोऽस्मान् भोजय च। योषणां वधूयुरिव नो जोषयासे वयं तव च गिरो जोषयेम ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरोळाशम्) पुरस्ताद्दातुं योग्यम् (च) (नः) अस्माकम् (घसः) भक्षय (जोषयासे) सेवयस्व (गिरः) वाचः (च) (नः) अस्माकम् (वधूयुरिव) यथाऽऽत्मनो वधूमिच्छुः (योषणाम्) स्वस्त्रियम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। राजप्रजाजनाः परस्परैश्वर्य्यं स्वकीयमेव मन्येरन्। यथा स्त्रीकामः प्रियां भार्य्यां प्राप्याऽऽनन्दति तथैव राजा धार्मिकीः प्रजा लब्ध्वा सततं हर्षेत् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजा व प्रजा यांनी आपसातील ऐश्वर्य आपलेच समजावे. जशी स्त्रीची कामना करणारा पुरुष प्रिय स्त्रीला प्राप्त करून आनंदित होतो तसेच राजाने धार्मिक प्रजेबरोबर सतत प्रसन्न राहावे. ॥ ३ ॥