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प्र ते॑ अश्नोतु कु॒क्ष्योः प्रेन्द्र॒ ब्रह्म॑णा॒ शिरः॑। प्र बा॒हू शू॑र॒ राध॑से॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra te aśnotu kukṣyoḥ prendra brahmaṇā śiraḥ | pra bāhū śūra rādhase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। ते॒। अ॒श्नो॒तु॒। कु॒क्ष्योः। प्र। इ॒न्द्र॒। ब्रह्म॑णा। शिरः॑। प्र। बा॒हू इति॑। शू॒र॒। राध॑से॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:51» मन्त्र:12 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:16» मन्त्र:7 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) राजाओं में श्रेष्ठ जो (ते) आपके (कुक्ष्योः) पेट के आस-पास के भागों में (ब्रह्मणा) धन के साथ रस को (प्र) (अश्नोतु) प्राप्त होवै और हे (शूर) वीर पुरुष ! (ते) आपके (शिरः) श्रेष्ठ अङ्ग मस्तक को (बाहू) भुजाओं को (राधसे) धन के लिये प्राप्त होवे, उसका आप पालन करिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! वही वस्तु आपको खाना तथा पीना चाहिये कि जो पेट में प्राप्त हो तथा विकृत हो रोगों को उत्पन्न करके बुद्धि का न नाश करे और जिससे निरन्तर आपमें बुद्धि बढ़ कर राज्य और ऐश्वर्य्य बढ़े ॥१२॥ इस सूक्त में राजा और प्रजा के धर्मवर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह इक्यावनवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! यस्ते कुक्ष्योर्ब्रह्मणा सह रसः प्राश्नोतु। हे शूर तव शिरो बाहू राधसे प्राश्नोतु तं त्वं पालय ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (ते) तव (अश्नोतु) प्राप्नोतु। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (कुक्ष्योः) उदरपार्श्वयोः (प्र) (इन्द्र) राजवर (ब्रह्मणा) धनेन (शिरः) उत्तमाङ्गम् (प्र) (बाहू) भुजौ (शूर) (राधसे) धनाय ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे राजँस्तदेव त्वयाऽऽशितव्यं पातव्यं च यदुदरं प्राप्य विकृतं सद्रोगानुत्पाद्य बुद्धिं न हिंस्याद्येन सततं त्वयि प्रज्ञा वर्द्धित्वा राज्यमैश्वर्यं च वर्धेतेति ॥१२॥ । अत्र राजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकाऽधिकपञ्चाशत्तमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -हे राजा! रोग होऊन बुद्धीचा नाश होणार नाही असे खान-पान तू केले पाहिजे ज्यामुळे निरंतर बुद्धी वाढून ऐश्वर्य वाढेल. ॥ १२ ॥