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स॒द्यो जा॒त ओष॑धीभिर्ववक्षे॒ यदी॒ वर्ध॑न्ति प्र॒स्वो॑ घृ॒तेन॑। आप॑इव प्र॒वता॒ शुम्भ॑माना उरु॒ष्यद॒ग्निः पि॒त्रोरु॒पस्थे॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sadyo jāta oṣadhībhir vavakṣe yadī vardhanti prasvo ghṛtena | āpa iva pravatā śumbhamānā uruṣyad agniḥ pitror upasthe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒द्यः। जा॒तः। ओष॑धीभिः। व॒व॒क्षे॒। यदि॑। वर्ध॑न्ति। प्र॒ऽस्वः॑। घृ॒तेन॑। आपः॑ऽइव। प्र॒ऽवता॑। शुम्भ॑मानाः। उ॒रु॒ष्यत्। अ॒ग्निः। पि॒त्रोः। उ॒पऽस्थे॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:5» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:25» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) जो (प्रस्वः) उत्पन्न होती हैं वे ओषधी (घृतेन) जल से (शुम्भमानाः) सुन्दर शोभित (आपइव) जलों के समान (वर्धन्ति) बढ़ती हैं तो उन (ओषधीभिः) ओषधियों के साथ (प्रवता) नीचला मार्ग है जिसका अर्थात् टपकता हुआ जो घृत उससे जो (सद्यः) शीघ्र (जातः) प्रगट होता हुआ (अग्निः) अग्नि (ववक्षे) रूठे के समान विरुद्ध होता है, जो अग्नि (पित्रोः) माता-पिता स्थानीय आकाश और पृथिवी के (उपस्थे) उस भाग में जिसमें स्थित होते हैं (उरुष्यत्) अपने को बहुत के समान आचरण करता है, उसको जानो ॥८॥
भावार्थभाषाः - यदि अग्नि सूर्यरूप से भूमि के जल को खींच कर वर्षा न करावे तो कोई भी ओषधि न हो। जैसे कोई रूठा हुआ किसीको मारता है, वैसे जलता हुआ अग्नि पाये हुए पदार्थों को जला देता है। और जैसे प्रसन्न होता हुआ मित्र मित्र की रक्षा करता है, वैसे युक्ति से सेवन किया हुआ अग्नि पदार्थों की रक्षा करता है ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यदि प्रस्वो घृतेन शुम्भमाना आपइव वर्धन्ति तर्हि ताभिरोषधीभिः सह प्रवता घृतेन यः सद्यो जातोऽग्निर्ववक्षे यदि पित्रोरुपस्थे उरुष्यत् तं विजानीत ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सद्यः) शीघ्रम् (जातः) प्रकटः सन् (ओषधीभिः) यवादिभिः (ववक्षे) रुष इव विरुध्यति (यदि) । अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वर्धन्ति) वर्धन्ते (प्रस्वः) याः प्रसूयन्ते ताः (घृतेन) उदकेन (आपइव) जलानीव (प्रवता) निम्नमार्गेण (शुम्भमानाः) सुशोभायुक्ताः (उरुष्यत्) आत्मन उरुर्बहुरिवाचरति (अग्निः) पावकः (पित्रोः) द्यावापृथिव्योः (उपस्थे) उपतिष्ठन्ति यस्मिँस्तस्मिन्। अत्र घञर्थे कविधानमिति वार्तिकेनाधिकरणकारके कः प्रत्ययः ॥८॥
भावार्थभाषाः - यदि वह्निः सूर्य्यरूपेण भूमेर्जलमाकृष्य न वर्षयेत्तर्हि काचिदप्योषधिर्न सम्भवेद्यथा कश्चिद्रुष्टः सन् कंचिद्धन्ति तथा प्रदीप्तः सन् वह्निः प्राप्तान् पदार्थान् हन्ति यथा तुष्टः सन् मित्रं मित्रं रक्षति तथा युक्त्या सेवितः सन्नग्निः पदार्थान् रक्षति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अग्नी सूर्यरूपाने भूमीवरील जल आकर्षित करून वृष्टी करविणार नसेल तर कोणतीही औषधी निर्माण होणार नाही. जसा एखादा क्रोधी माणूस कुणालाही मारतो तसा प्रदीप्त अग्नी पदार्थांना जाळतो. जसा प्रसन्न असलेला मित्र मित्राचे रक्षण करतो तसा युक्तीने सेवन केलेला अग्नी पदार्थांचे रक्षण करतो. ॥ ८ ॥