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आ योनि॑म॒ग्निर्घृ॒तव॑न्तमस्थात्पृ॒थुप्र॑गाणमु॒शन्त॑मुशा॒नः। दीद्या॑नः॒ शुचि॑र्ऋ॒ष्वः पा॑व॒कः पुनः॑ पुनर्मा॒तरा॒ नव्य॑सी कः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yonim agnir ghṛtavantam asthāt pṛthupragāṇam uśantam uśānaḥ | dīdyānaḥ śucir ṛṣvaḥ pāvakaḥ punaḥ-punar mātarā navyasī kaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। योनि॑म्। अ॒ग्निः। घृ॒तऽव॑न्तम्। अ॒स्था॒त्। पृ॒थुऽप्र॑गानम्। उ॒शन्त॑म्। उशा॒नः। दीद्या॑नः। शुचिः॑। ऋ॒ष्वः। पा॒व॒कः। पुनः॑ऽपुनः। मा॒तरा॑। नव्य॑सी॒ इति॑। क॒रिति॑ कः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:5» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (पावकः) पवित्र करनेवाला (अग्निः) अग्नि (पुनःपुनः) वारंवार (नव्यसी) अतीव नवीन (मातरा) माता-पिता को (कः) प्रसिद्ध करता है वा (घृतवन्तम्) घी जिसमें विद्यमान उस (योनिम्) घर को (आ, अस्थात्) आस्था करता अर्थात् सब प्रकार उसमें स्थिर होता है वैसे (दीद्यानः) देदीप्यमान (शुचिः) पवित्र (ऋष्वः) और प्राप्त होने योग्य जन (पृथुप्रगाणम्) जिसमें विशेष गान वा स्तुति विद्यमान हैं वा जो (उशन्तम्) कामना किया जाता है उसको (उशानः) कामना करता हुआ विद्या और पढ़ानेवाले को माता-पिता के तुल्य मान अपने स्वभावरूपी घर को अच्छा स्थित हो ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्युत् रूप अग्नि पृथिवी आदि पदार्थों में स्थिर और सब ओर से अभिव्याप्त होकर किसी से विरुद्ध नहीं होता, वैसे विद्वान् जन किसी से विरुद्ध आचरण न करें, जैसे अग्नि शुद्ध और दूसरों को शुद्ध करनेवाला है, वैसे पवित्र होता हुआ औरों को पवित्र करे ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यथा पावकोऽग्निः पुनःपुनर्नव्यसी मातरा को घृतवन्तं योनिमास्थात् तथा दीद्यानः शुचिर्ऋष्वः पृथुप्रगाणमुशन्तमुशानः सन् विद्याध्यापकौ मातापितृवन् मत्वा स्वस्वभावाख्यं गृहमातिष्ठेत् ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (योनिम्) गृहम् (अग्निः) पावकः (घृतवन्तम्) बहुघृतमुदकं विद्यते यस्मिन् (अस्थात्) आतिष्ठेत् (पृथुप्रगाणम्) पृथूनि प्रकृष्टानि गानानि स्तवनानि यस्मिँस्तम् (उशन्तम्) कामयमानम् (उशानः) कामयमानः (दीद्यानः) देदीप्यमानः (शुचि) पवित्रः (ऋष्वः) प्राप्तुं योग्यः (पावकः) पवित्रकर्त्ता (पुनःपुनः) वारंवारम् (मातरा) मातरौ (नव्यसी) अतिशयेन नवीने (कः) करोति ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्युदग्निः पृथिव्यादिषु स्थित्वाऽभिव्याप्य कस्माच्चिन्न विरुध्यति तथा विद्वांसः कस्माच्चिद्विरोधं नाचरेयुः। यथाऽग्निः शुद्धशोधकोऽस्ति तथा पवित्रः सन्नन्यान् पवित्रान् कुर्य्यात् ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा विद्युतरूपी अग्नी पृथ्वी इत्यादी पदार्थांमध्ये स्थिर व सगळीकडून अभिव्याप्त होऊन कुणाच्या विरुद्ध नसतो. तसे विद्वानांनी कुणाच्या विरुद्ध आचरण करू नये. जसा अग्नी शुद्ध असतो व इतरांना शुद्ध करणारा असतो तसे पवित्र बनून इतरांनाही पवित्र करावे. ॥ ७ ॥