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स॒जोषा॑ इन्द्र॒ सग॑णो म॒रुद्भिः॒ सोमं॑ पिब वृत्र॒हा शू॑र वि॒द्वान्। ज॒हि शत्रूँ॒रप॒ मृधो॑ नुद॒स्वाथाभ॑यं कृणुहि वि॒श्वतो॑ नः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sajoṣā indra sagaṇo marudbhiḥ somam piba vṛtrahā śūra vidvān | jahi śatrūm̐r apa mṛdho nudasvāthābhayaṁ kṛṇuhi viśvato naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒ऽजोषाः॑। इ॒न्द्र॒। सऽग॑णः। म॒रुत्ऽभिः॑। सोम॑म्। पि॒ब॒। वृ॒त्र॒ऽहा। शू॒र॒। वि॒द्वान्। ज॒हि। शत्रू॑न्। अप॑। मृधः॑। नु॒द॒स्व॒। अथ॑। अभ॑यम्। कृ॒णु॒हि॒। वि॒श्वतः॑। नः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:47» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शूर) शत्रुओं के नाशकर्त्ता (इन्द्र) ऐश्वर्य्य से युक्त करनेवाले ! (मरुद्भिः) पवनों के सदृश वीर पुरुषों के और (सगणः) गणों के सहित वर्त्तमान (वृत्रहा) मेघ का नाशकर्त्ता सूर्य्य जैसे वैसे (सजोषाः) तुल्य प्रीति का सेवन करनेवाला गणों के सहित वर्त्तमान होकर और पवनों के सदृश वीर पुरुषों के सहित (विद्वान्) सकल विद्याओं का जाननेवाला पुरुष (सोमम्) सोमलता के रस को (पिब) पीजिये और (शत्रून्) शत्रुओं को (अप, जहि) देश से बाहर करके नष्ट करिये (मृधः) सङ्ग्रामों की (नुदस्व) प्रेरणा अर्थात् प्रवृत्ति का उत्साह दीजिये (अथ) उसके अनन्तर (विश्वतः) सब ओर से (नः) हम लोगों को (अभयम्) भयरहित (कृणुहि) कीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो राजा आदि मनुष्य परस्पर मित्र होकर नियमित भोजन विहार ब्रह्मचर्य्य जितेन्द्रिय होने आदि से पूर्ण शरीर आत्मा के बलवाले हो शत्रुओं को नाश कर और संग्रामों को जीतकर प्रजाओं में सब प्रकार भयरहित करते हैं, वे ही सर्वत्र भयरहित सुख को प्राप्त होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे शूरेन्द्र राजन् ! मरुद्भिः सगणो वृत्रहा सूर्य्य इव सजोषाः सगणो मरुद्भिः सह विद्वान् सोमं पिब शत्रूनप जहि मृधो नुदस्वाथ विश्वतो नोऽभयं कृणुहि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सजोषाः) समानप्रीतिसेवनः (इन्द्र) ऐश्वर्य्यप्रयोजक (सगणः) गणैः सह वर्त्तमानः (मरुद्भिः) वायुभिरिव वीरैः सह (सोमम्) (पिब) (वृत्रहा) मेघस्य हन्ता सूर्य्य इव (शूर) शत्रूणां हिंसक (विद्वान्) सकलविद्यावित् (जहि) नाशय (शत्रून्) (अप) दूरीकरणे (मृधः) सङ्ग्रामान् (नुदस्व) प्रेरस्व (अथ) (अभयम्) (कृणुहि) (विश्वतः) सर्वतः (नः) अस्मान् ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये राजादयो मनुष्याः परस्परेषु सुहृदो भूत्वा युक्ताहारविहारब्रह्मचर्यजितेन्द्रियत्वादिभिः पूर्णशरीरात्मबलाः सन्तः शत्रून् हत्वा सङ्ग्रामान् जित्वा प्रजासु सर्वथाऽभयं स्थापयन्ति त एव सर्वत्राऽभयं सुखं प्राप्नुवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे राजे परस्पर मैत्री करून नियमित आहार-विहार, ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियता इत्यादीने शरीर व आत्म्याच्या पूर्ण बलाने शत्रूंचा संहार करतात व युद्ध जिंकून प्रजेला सर्व प्रकारे भयरहित करतात तेच सर्वत्र निर्भयतेने वावरून सुख प्राप्त करतात. ॥ २ ॥