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कु॒विन्मा॑ गो॒पां कर॑से॒ जन॑स्य कु॒विद्राजा॑नं मघवन्नृजीषिन्। कु॒विन्म॒ ऋषिं॑ पपि॒वांसं॑ सु॒तस्य॑ कु॒विन्मे॒ वस्वो॑ अ॒मृत॑स्य॒ शिक्षाः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kuvin mā gopāṁ karase janasya kuvid rājānam maghavann ṛjīṣin | kuvin ma ṛṣim papivāṁsaṁ sutasya kuvin me vasvo amṛtasya śikṣāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कु॒वित्। मा॒। गो॒पाम्। कर॑से। जन॑स्य। कु॒वित्। राजा॑नम्। म॒घ॒ऽव॒न्। ऋ॒जी॒षि॒न्। कु॒वित्। मा॒। ऋषि॑म्। प॒पि॒ऽवांस॑म्। सु॒तस्य॑। कु॒वित्। मे॒। वस्वः॑। अ॒मृत॑स्य। शिक्षाः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:43» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वज्जन ! जो आप (जनस्य) सब लोगों के (कुवित्) श्रेष्ठ (गोपाम्) धार्मिक पुरुषों के रक्षा करनेवाले (मा) मुझको (करसे) करें। हे (मघवन्) परम प्रशंसनीय धनयुक्त (ऋजीषिन्) कोमलपन को चाहनेवाले जो आप जनसमूह का (राजानम्) राजा करें वह (सुतस्य) उत्पन्न किये हुए सोम के रस को (पपिवांसम्) पीते हुए (कुवित्) श्रेष्ठ (ऋषिम्) सम्पूर्ण वेदों के अर्थ के जाननेवाले होने की (मा) मुझको (शिक्षाः) शिक्षा दीजिये और आप (कुवित्) श्रेष्ठ (अमृतस्य) नाश से रहित (मे) मेरे (वस्वः) धन को करें, उन आपकी हम लोग सेवा करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो लोग आप लोगों को विद्या विनय और उत्तम शिक्षादान से बड़े राजा करते और वेद के अर्थों को समझा के मोक्ष सिद्ध करते हैं, उनको आप अपने आत्मा के सदृश प्रसन्न करें ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वन् ! यस्त्वं जनस्य कुविद्गोपां मा करसे। हे मघवन्नृजीषिन् यस्त्वं जनस्य कुविद्राजानं करसे सुतस्य पपिवांसं कुविदृषिं मा शिक्षाः कुविदमृतस्य मे वस्वः करसे तं त्वां वयं भजामहे ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कुवित्) महान्तम् (मा) माम् (गोपाम्) धार्मिकाणां रक्षकम् (करसे) कुर्य्याः (जनस्य) (कुवित्) महान्तम् (राजानम्) (मघवन्) परमपूजितधनयुक्त (ऋजीषिन्) ऋजुभावमिच्छन् (कुवित्) महान्तम् (मा) माम्। अत्र ऋत्यक इति ह्रस्वो भूत्वा प्रकृतिभावः। (ऋषिम्) सकलवेदमन्त्रार्थवेत्तारम् (पपिवांसम्) पीतवन्तम् (सुतस्य) निष्पादितस्य सोमस्य रसम् (कुवित्) महतः (मे) मम (वस्वः) धनस्य (अमृतस्य) नाशरहितस्य (शिक्षाः) शिक्षस्व। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ये युष्मान् विद्याविनयसुशिक्षादानेन महतो राज्ञः कुर्वन्ति वेदार्थं विज्ञाप्य मोक्षं साधयन्ति तान् यूयं स्वात्मवत्प्रीणीत ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जे लोक तुम्हाला विद्या, विनय व उत्तम शिक्षणाने मोठा राजा बनवितात व वेदाचा अर्थ समजावून मोक्ष सिद्ध करवितात त्यांना आपल्या आत्म्याप्रमाणे प्रसन्न करावे. ॥ ५ ॥