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आ नो॑ य॒ज्ञं न॑मो॒वृधं॑ स॒जोषा॒ इन्द्र॑ देव॒ हरि॑भिर्याहि॒ तूय॑म्। अ॒हं हि त्वा॑ म॒तिभि॒र्जोह॑वीमि घृ॒तप्र॑याः सध॒मादे॒ मधू॑नाम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no yajñaṁ namovṛdhaṁ sajoṣā indra deva haribhir yāhi tūyam | ahaṁ hi tvā matibhir johavīmi ghṛtaprayāḥ sadhamāde madhūnām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। नः॒। य॒ज्ञम्। न॒मः॒ऽवृध॑म्। स॒ऽजोषाः॑। इन्द्र॑। दे॒व॒। हरि॑ऽभिः। या॒हि॒। तूय॑म्। अ॒हम्। हि। त्वा॒। म॒तिऽभिः॑। जोह॑वीमि। घृ॒तऽप्र॑याः। स॒ध॒ऽमादे॑। मधू॑नाम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:43» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) विद्वन् ! (इन्द्र) ऐश्वर्य्य से युक्त करनेवाले (घृतप्रयाः) घृत से प्रसन्न होनेवाला (अहम्) मैं (मतिभिः) बुद्धियों से (मधूनाम्) और मधुर आदि गुणों से युक्त पदार्थों के (सधमादे) तुल्य स्थान में (हि) जिससे कि (त्वा) आपकी (जोहवीमि) प्रशंसा करता वा बुलाता हूँ इससे (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवनेवाले आप (हरिभिः) घोड़ों के सदृश अग्नि आदिकों से (नः) हम लोगों को (नमोवृधम्) अन्न आदि ऐश्वर्य्य के बढ़ानेवाले (यज्ञम्) प्रयत्न से सिद्ध होने योग्य सङ्गत व्यवहार के प्रति (तूयम्) शीघ्र (आ) सब प्रकार (याहि) प्राप्त हूजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उन लोगों की ही प्रशंसा करनी चाहिये कि जो सबके सुखों की वृद्धि करें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे देवेन्द्र घृतप्रया अहं मतिभिर्मधूनां सधमादे हि त्वा जोहवीमि तस्मात्सजोषास्त्वं हरिभिर्नो नमोवृधं यज्ञं तूयमायाहि ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) प्रयत्नसाध्यम् (नमोवृधम्) अन्नाद्यैश्वर्य्यवर्धकम् (सजोषाः) समानप्रीतिसेवनाः (इन्द्र) ऐश्वर्य्ययोजक (देव) विद्वन् (हरिभिः) अश्वैरिव वह्न्यादिभिः (याहि) गच्छ (तूयम्) तूर्णम् (अहम्) (हि) (त्वा) त्वाम् (मतिभिः) प्रज्ञाभिः (जोहवीमि) भृशं प्रशंसाम्याह्वयामि वा (घृतप्रयाः) यो घृतेन प्रीणाति सः (सधमादे) समानस्थाने (मधूनाम्) मधुरादिगुणयुक्तानां पदार्थानाम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैस्तेषामेव प्रशंसा कार्य्या ये सर्वेषां सुखं वर्द्धयेयुः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी त्याच लोकांची प्रशंसा केली पाहिजे जे सर्वांच्या सुखाची वृद्धी करतात. ॥ ३ ॥