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तमि॑न्द्र॒ मद॒मा ग॑हि बर्हिः॒ष्ठां ग्राव॑भिः सु॒तम्। कु॒विन्न्व॑स्य तृ॒प्णवः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam indra madam ā gahi barhiḥṣṭhāṁ grāvabhiḥ sutam | kuvin nv asya tṛpṇavaḥ ||

पद पाठ

तम्। इ॒न्द्र॒। मद॒म्। आ। ग॑हि ब॒र्हिः॒ऽस्थाम्। ग्राव॑ऽभिः। सु॒तम्। कु॒वित्। नु। अ॒स्य॒। तृ॒प्णवः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:42» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) ऐश्वर्य्य की इच्छा करनेवाले ! जो (अस्य) इस सोमलता की (तृप्णवः) तृप्ति करनेवाले हैं उनसे (कुवित्) श्रेष्ठ होकर (तम्) उस पूर्वोक्त को (ग्रावभिः) मेघों से (सुतम्) उत्पन्न (मदम्) आनन्दकारक (बर्हिष्ठाम्) अन्तरिक्ष में वर्त्तमान होनेवाले ओषधिगणों के सदृश वर्त्तमान ऐश्वर्य को (नु) शीघ्र (आ, गहि) सब प्रकार प्राप्त हूजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो सोमलता आदि ओषधियाँ वृष्टियों से उत्पन्न होतीं रोगविनाशक होने से तृप्तिकारक होतीं और सूक्ष्म अवयवों के द्वारा अन्तरिक्ष को प्राप्त हो के सब स्थानों में फैलती हैं, उनका युक्ति से सेवन करके सदा आनन्द का भोग करना चाहिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! येऽस्य तृप्णवः सन्ति तैः कुवित्सन् तं ग्रावभिः सुतं मदं बर्हिष्ठां सोमं न्वागहि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) पूर्वोक्तम् (इन्द्र) ऐश्वर्य्यमिच्छो (मदम्) आनन्दकरम् (आ) (गहि) सर्वतः प्राप्नुहि (बर्हिष्ठाम्) यो बर्हिष्यन्तरिक्षे तिष्ठति तम् (ग्रावभिः) मेघैः (सुतम्) निष्पन्नम् (कुवित्) महान् सन् (नु) सद्यः (अस्य) सोमस्य (तृप्णवः) ये तृप्णन्ति ते ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये सोमलतादयो वर्षाभिरुत्पद्यन्ते रोगविनाशकत्वेन तृप्तिकरा भवन्ति सूक्ष्मांशैरन्तरिक्षं प्राप्य सर्वत्र प्रसरन्ति तान् युक्त्या संसेव्य सदाऽऽनन्दो भोक्तव्यः ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी सोमलता इत्यादी औषधी वृष्टीने उत्पन्न होतात, रोगविनाशक असल्यामुळे तृप्तिकारक असतात व सूक्ष्म अवयवाद्वारे अंतरिक्षात जाऊन सर्व स्थानी पसरतात. त्यांचे युक्तीने सेवन करून सदैव आनंदाचा भोग केला पाहिजे. ॥ २ ॥