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इन्द्र॒ प्र णो॑ धि॒तावा॑नं य॒ज्ञं विश्वे॑भिर्दे॒वेभिः॑। ति॒रः स्त॑वान विश्पते॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra pra ṇo dhitāvānaṁ yajñaṁ viśvebhir devebhiḥ | tira stavāna viśpate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑। प्र। नः॒। धि॒तऽवा॑नम्। य॒ज्ञम्। विश्वे॑भिः। दे॒वेभिः॑। ति॒रः। स्त॒वा॒न॒। वि॒श्प॒ते॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:40» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विश्पते) प्रजा का पालन (स्तवान) सत्य की स्तुति और (इन्द्र) दुष्टों का नाश करनेवाले ! आप (विश्वेभिः) संपूर्ण (देवेभिः) धार्मिक श्रेष्ठ विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों के (धितावानम्) धारण किया है विभाग जिससे उस (यज्ञम्) विद्या और विनय से सङ्गत पालन करने रूप कर्म को (प्र, तिरः) पार हो समाप्त करो अर्थात् उस कर्म से दुःख से पार पहुँचो ॥३॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनों को चाहिये कि राजा को इस प्रकार का उपदेश देवें कि आप हम लोगों के रक्षक हूजिये और ऐसी आज्ञा दीजिये कि आपके सब श्रेष्ठ मध्यम कनिष्ठ कर्मचारी लोग धर्मपूर्वक हम लोगों की निरन्तर रक्षा करें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विश्पते स्तवानेन्द्र ! त्वं विश्वेभिर्देवेभिः सह नो धितावानं यज्ञं प्र तिरः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) दुष्टानां विदारक (प्र) (नः) अस्माकम् (धितावानम्) धितो धृतो वानः संविभागो येन तम् (यज्ञम्) विद्याविनयाभ्यां सङ्गतं पालनाख्यम् (विश्वेभिः) सर्वैः (देवेभिः) धार्मिकैः सभ्यैर्विद्वद्भिः सह (तिरः) प्लवदुःखात्पारं गच्छ (स्तवान) यः सत्यं स्तौति तत्सम्बुद्धौ (विश्पते) प्रजापालक ॥३॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनै राजैवमुपदेष्टव्यो भवान् नोऽस्माकं रक्षको भवैवमाज्ञापय भवतः सर्वे श्रेष्ठमध्यमकनिष्ठा भृत्याधर्मेणाऽस्मान् सततं रक्षन्त्विति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रजेने राजाला असा उपदेश करावा की तुम्ही आमचे रक्षक व्हा व अशी आज्ञा द्या, की तुमच्या श्रेष्ठ, मध्यम, कनिष्ठ कर्मचाऱ्यांनी धर्मपूर्वक निरंतर आमचे रक्षण करावे. ॥ ३ ॥