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इन्द्रो॒ मधु॒ संभृ॑तमु॒स्रिया॑यां प॒द्वद्वि॑वेद श॒फव॒न्नमे॒ गोः। गुहा॑ हि॒तं गुह्यं॑ गू॒ळ्हम॒प्सु हस्ते॑ दधे॒ दक्षि॑णे॒ दक्षि॑णावान्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indro madhu sambhṛtam usriyāyām padvad viveda śaphavan name goḥ | guhā hitaṁ guhyaṁ gūḻham apsu haste dadhe dakṣiṇe dakṣiṇāvān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑। मधु॑। सम्ऽभृ॑तम्। उ॒स्रिया॑याम्। प॒त्ऽवत्। वि॒वे॒द॒। श॒फऽव॑त्। नमे॑। गोः। गुहा॑। हि॒तम्। गुह्य॑म्। गू॒ळ्हम्। अ॒प्ऽसु। हस्ते॑। द॒धे॒। दक्षि॑णे। दक्षि॑णऽवान्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:39» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (इन्द्रः) बिजुली के समान मनुष्य (उस्रियायाम्) भूमि में (पद्वत्) पैरों के और (शफवत्) खुरों के सदृश (मधु) मधुर आदि रस (सम्भृतम्) जो कि उत्तम धारण किया गया उसे (नमे) नमें स्वीकार करे (विवेद) जाने (गोः) वाणी और (गुहा) बुद्धि में (हितम्) स्थित (अप्सु) प्राणों वा जलों में (गुह्यम्) गुप्त और (गूढ़म्) ढपे हुए व्यवहार को (दक्षिणावान् दक्षिणा को धारण किये हुए के समान (दक्षिणे) दाहिने (हस्ते) हाथ में (दधे) धारण करे उसको सब लोग जानो ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे मनुष्य पैरों और पशुखुरों में गमन करके दूसरे स्थान को प्रत्यक्ष करते हैं, वैसे ही बाहर भीतर वर्त्तमान बिजुली को विद्वान् पुरुष हस्तप्राप्त दक्षिणा के सदृश जानकर और हृदय में वर्त्तमान अपने आत्मा और परमात्मा तथा बाह्य सूर्य आदि को जानता है, इसके सहाय से धर्म अर्थ काम और मोक्षों को सब सिद्ध करें ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

य इन्द्रो उस्रियायां पद्वच्छफवन्न मधु सम्भृतं नमे विवेद गोर्गुहा हितमप्सु गुह्यं गूढं दक्षिणावानिव दक्षिणे हस्ते दधे तं सर्वे जानन्तु ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) विद्युदिव नरः (मधु) मधुरादिकं रसम् (सम्भृतम्) सम्यग्धृतम् (उस्रियायाम्) भूमौ (पद्वत्) पद्भ्यां तुल्यम् (विवेद) (शफवत्) शफा विद्यन्ते यस्मिन् पदे तत् (नमे) नमेत् (गोः) वाचः (गुहा) गुहायां बुद्धौ (हितम्) स्थितम् (गुह्यम्) गुप्तम् (गूढम्) (अप्सु) प्राणेषु जलेषु वा (हस्ते) (दधे) दध्यात् (दक्षिणावान्) दक्षिणा विद्यते यस्य स इव ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा मनुष्याः पद्भ्यां पशवः शफैर्गमनं कृत्वा देशान्तरं साक्षात्कुर्वन्ति तथैव बाह्याभ्यन्तरस्थां विद्युतं विद्वानेव हस्तगतदक्षिणावद्विदित्वाऽऽभ्यन्तरं स्वात्मानं परमात्मानं च बाह्यं सूर्यादिकं विजानात्येतत्सहायेन धर्मार्थकाममोक्षान् सर्वे साध्नुवन्तु ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशी माणसे पायांनी व पशू खुरांनी गमन करतात व दुसऱ्या स्थानी जातात तसे सर्वत्र असलेल्या विद्युतला विद्वान पुरुष प्राप्त झालेल्या दक्षिणेप्रमाणे जाणून हृदयातील आत्मा, परमात्मा व सूर्य इत्यादींना जाणतो. याच्या साहाय्याने सर्वांनी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करावा. ॥ ६ ॥