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प्र यत्सिन्ध॑वः प्रस॒वं यथाय॒न्नापः॑ समु॒द्रं र॒थ्ये॑व जग्मुः। अत॑श्चि॒दिन्द्रः॒ सद॑सो॒ वरी॑या॒न्यदीं॒ सोमः॑ पृ॒णति॑ दु॒ग्धो अं॒शुः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra yat sindhavaḥ prasavaṁ yathāyann āpaḥ samudraṁ rathyeva jagmuḥ | ataś cid indraḥ sadaso varīyān yad īṁ somaḥ pṛṇati dugdho aṁśuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। यत्। सिन्ध॑वः। प्र॒ऽस॒वम्। यथा॑। आय॑न्। आपः॑। स॒मु॒द्रम्। र॒थ्या॑ऽइव। ज॒ग्मुः॒। अतः॑। चि॒त्। इन्द्रः॑। सद॑सः। वरी॑यान्। यत्। ई॒म्। सोमः॑। पृ॒णति॑। दु॒ग्धः। अं॒शुः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:36» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जैसे (सिन्धवः) नदियाँ (प्रसवम्) मेघ को वा (आपः) जल (समुद्रम्) अन्तरिक्ष को (आयन्) प्राप्त होते हैं जैसे (यत्) जो उत्तम गुणों को प्राप्त होवैं वा (रथ्येव) रथों में जो उत्तम चाल उसके सदृश सब स्थानों में (प्र, जग्मुः) प्राप्त हुए उनके साथ (चित्) भी (यत्) जो (इन्द्रः) राजा (वरीयान्) श्रेष्ठ पुरुष होता हुआ (सदसः) सभाओं को प्राप्त होवैं (अतः) इससे वह (दुग्धः) गुणों से पूर्ण (अंशुः) ओषधियों का सार भाग और (सोमः) ओषधियों का समूह (ईम्) जल को जैसे प्राप्त हो वैसे सम्पूर्ण प्राणियों को (पृणति) सुख देता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचक लुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य वैर को त्याग के सम्पूर्ण प्राणियों के उपकार करने की इच्छा करैं, उनके प्रति जैसे नदियाँ समुद्र को और जल अन्तरिक्ष के सन्मुख को प्राप्त होते हैं, वैसे सन्मुख जाते हैं, उनसे उत्तम शिक्षा को प्राप्त उत्तम प्रकार से सींचे गये ओषधियों के समूह के सदृश सम्पूर्ण प्राणियों के सुख देने को समर्थ होते हैं ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्नुणानाह।

अन्वय:

यथा सिन्धवः प्रसवमापः समुद्रं मायँस्तथा यद्ये शुभान्गुणानीयू रथ्येव सर्वत्र प्रजग्मुस्तैः सह चिद्यदिन्द्रो वरीयान् सन्सदसोगच्छदतः स दुग्धोंऽशुः सोम ईं प्राप्त इव सर्वान्पृणति ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (यत्) ये (सिन्धवः) नद्यः (प्रसवम्) प्रसूयन्ते यस्मात्तं मेघम् (यथा) (आयन्) गच्छन्ति (आपः) जलानि (समुद्रम्) अन्तरिक्षम् (रथ्येव) रथेषु साध्वी गतिरिव (जग्मुः) (अतः) (चित्) अपि (इन्द्रः) राजा (सदसः) सभाः (वरीयान्) (यत्) यः (ईम्) जलम् (सोमः) ओषधिगणः (पृणति) सुखयति (दुग्धः) प्रपूर्णः (अंशुः) ओषधिसारः ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या निर्वैरा भूत्वा सर्वेषामुपकारं कर्त्तुमिच्छेयुस्तान्प्रति नद्यः समुद्रमिव जलान्यन्तरिक्षमिवाऽऽभिमुख्यं गच्छन्ति तेभ्यः सुशिक्षां प्राप्य सुषिक्त ओषधिगण इव सर्वान् सुखयितुं प्रभवन्ति ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशा नद्या समुद्राला मिळतात व जल अंतरिक्षात जाते तसे जी माणसे वैराचा त्याग करून संपूर्ण प्राण्यांवर उपकार करण्याची इच्छा करतात, उत्तम प्रकारे सिंचन केलेल्या औषधीसमूहाप्रमाणे ती सुशिक्षण प्राप्त करून संपूर्ण प्राण्यांना सुख देण्यास समर्थ असतात. ॥ ६ ॥