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अ॒स्मे प्र य॑न्धि मघवन्नृजीषि॒न्निन्द्र॑ रा॒यो वि॒श्ववा॑रस्य॒ भूरेः॑। अ॒स्मे श॒तं श॒रदो॑ जी॒वसे॑ धा अ॒स्मे वी॒राञ्छश्व॑त इन्द्र शिप्रिन्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asme pra yandhi maghavann ṛjīṣinn indra rāyo viśvavārasya bhūreḥ | asme śataṁ śarado jīvase dhā asme vīrāñ chaśvata indra śiprin ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मे इति॑। प्र। य॒न्धि॒। म॒घ॒ऽव॒न्। ऋ॒जी॒षि॒न्। इन्द्र॑। रा॒यः। वि॒श्वऽवा॑रस्य। भूरेः॑। अ॒स्मे इति॑। श॒तम्। श॒रदः॑। जी॒वसे॑। धाः॒। अ॒स्मे इति॑। वी॒रान्। शश्व॑तः। इ॒न्द्र॒। शि॒प्रि॒न्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:36» मन्त्र:10 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शिप्रिन्) सुन्दर नासिका और ठोढ़ीवाले (इन्द्र) सुख के दाता ! आप (अस्मे) हम लोगों के लिये (शश्वतः) निरन्तर वर्त्तमान (वीरान्) पराक्रमी मनुष्यों को धारण करो हे (मघवन्) बहुत सत्कारयुक्त धन से परिपूर्ण (ऋजीषिन्) सरल स्वभाववाले (इन्द्र) सूर्य के सदृश प्रतापी आप (अस्मे) हम लोगों का (विश्ववारस्य) सम्पूर्ण सुख स्वीकार किया जाता है जिससे उस (भूरेः) अनेक प्रकार (रायः) धन के भाग को (प्र, यन्धि) दीजिये (अस्मे) हम लोगों को (जीवसे) जीवने के लिये (शतम्, शरदः) सौ वर्षों को (धाः) धारण कीजिये ॥१०॥
भावार्थभाषाः - वे ही उत्तम स्वभाववाले यथार्थवक्ता विद्वान् लोग हैं कि जो लक्ष्मी का विभाग करके अर्थात् अन्य जनों को बाँट के फिर आप भोजन करते हैं और मनुष्यों को ब्रह्मचर्य्य के उपदेश से सौ वर्ष की अवस्थावाले करके सम्पूर्ण कर्मों में उत्साही भयरहित और पुरुषार्थी करते हैं ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे शिप्रिन्निन्द्र ! त्वमस्मे शश्वतो वीरान् धाः। हे मघवन्नृजीषिन्निन्द्र त्वमस्मे विश्ववारस्य भूरे रायो भागं प्रयन्धि। अस्मे जीवसे शतं शरदो धाः ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मे) अस्मभ्यम् (प्र) (यन्धि) प्रयच्छ (मघवन्) बहुसत्कृतधनयुक्त (ऋजीषिन्) सरलस्वभाव (इन्द्र) सुखदातः (रायः) धनस्य (विश्ववारस्य) समग्रं सुखं स्वीकृतं यस्मात्तस्य (भूरेः) बहुविधस्य (अस्मे) अस्मान् (शतम्) (शरदः) शतं वर्षाणि (जीवसे) जीवितुम् (धाः) धेहि (अस्मे) अस्माकम् (वीरान्) विक्रान्तान् जनान् (शश्वतः) निरन्तरान् (इन्द्र) सूर्य इव प्रभावयुक्त (शिप्रिन्) शोभनहनुनासिक ॥१०॥
भावार्थभाषाः - त एव सरलस्वभावा आप्ता विद्वांसः सन्ति ये श्रियं विभज्य भुञ्जते ब्रह्मचर्य्योपदेशेन शतायुषः कृत्वा सर्वेषु कर्म्मसूत्साहितान्निर्भयान् पुरुषार्थिनः कुर्वन्ति ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - तेच उत्तम स्वभावाचे यथार्थ वक्ते विद्वान लोक असतात जे संपत्तीचे विभाजन करतात व नंतर भोजन करतात व माणसांना ब्रह्मचर्याच्या उपदेशाने शतायुषी करून सर्वांना उत्साही भयरहित व पुरुषार्थी करतात. ॥ १० ॥