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इन्द्र॒ पिब॑ स्व॒धया॑ चित्सु॒तस्या॒ग्नेर्वा॑ पाहि जि॒ह्वया॑ यजत्र। अ॒ध्व॒र्योर्वा॒ प्रय॑तं शक्र॒ हस्ता॒द्धोतु॑र्वा य॒ज्ञं ह॒विषो॑ जुषस्व॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra piba svadhayā cit sutasyāgner vā pāhi jihvayā yajatra | adhvaryor vā prayataṁ śakra hastād dhotur vā yajñaṁ haviṣo juṣasva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑। पिब॑। स्व॒धया॑। चि॒त्। सु॒तस्य॑। अ॒ग्नेः। वा॒। पा॒हि॒। जि॒ह्वया॑। य॒ज॒त्र॒। अ॒ध्व॒र्योः। वा॒। प्रऽय॑तम्। श॒क्र॒। हस्ता॑त्। होतुः॑। वा॒। य॒ज्ञम्। ह॒विषः॑। जु॒ष॒स्व॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:35» मन्त्र:10 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यजत्र) आदर करने योग्य (शक्र) शक्तिमान् (इन्द्र) ऐश्वर्य्यवाले ! आप (अग्नेः) अग्नि की (जिह्वया) ज्वाला के सदृश वर्त्तमान लपट से (वा) वा (स्वधया) अन्न से (चित्) भी (सुतस्य) सिद्ध हुए रस का (पिब) पान करिये (अध्वर्योः) आत्मसम्बन्धी यज्ञ की इच्छा करते हुए पुरुष के (वा) अथवा (प्रयतम्) प्रयत्न से सिद्ध (यज्ञम्) यज्ञ का (पाहि) पालन करो (होतुः) देनेवाले के (हस्तात्) हाथ और (हविषः) हवन की सामग्री से (वा) अथवा यज्ञ का (जुषस्व) सेवन करो ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिन मनुष्यों से उत्तम प्रकार सिद्ध किये हुए अन्न का भोजन और रस का पान कर रोगरहित हो और विद्वानों के साथ मेल करके यज्ञ का सेवन किया जाय, वे सदा सुखी होवैं ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे यजत्र शक्रेन्द्र ! त्वमग्नेर्ज्वालेव जिह्वया स्वधया वा चित्सुतस्य रसं पिब अध्वर्योर्वा प्रयतं यज्ञं पाहि। होतुर्हस्ताद्धविषो वा यज्ञं जुषस्व ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) ऐश्वर्य्यवन् (पिब) (स्वधया) अन्नेन (चित्) अपि (सुतस्य) निष्पन्नस्य (अग्नेः) पावकस्य (वा) (पाहि) (जिह्वया) ज्वालेव वर्त्तमानया (यजत्र) पूजनीय (अध्वर्योः) य आत्मनोऽध्वरमिच्छति तस्य (वा) (प्रयतम्) प्रयत्नेन सिद्धम् (शक्र) शक्तिमन् (हस्तात्) (होतुः) दातुः (वा) (यज्ञम्) (हविषः) साकल्यात् (जुषस्व) सेवस्व ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यैर्मनुष्यैः सुसाधितस्याऽन्नस्य भोजनं रसस्य पानं कृत्वाऽरोगा भूत्वा विद्वद्भिः सह सङ्गत्य यज्ञः सेव्येत ते सदा सुखिनः स्युः ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे उत्तम प्रकारे सिद्ध केलेल्या अन्नाचे भोजन व रसाचे पान करून रोगरहित होतात व विद्वानांबरोबर यज्ञ करतात ती नेहमी सुखी राहतात. ॥ १० ॥