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प्र॒वाच्यं॑ शश्व॒धा वी॒र्यं१॒॑ तदिन्द्र॑स्य॒ कर्म॒ यदहिं॑ विवृ॒श्चत्। वि वज्रे॑ण परि॒षदो॑ जघा॒नाय॒न्नापोऽय॑नमि॒च्छमा॑नाः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pravācyaṁ śaśvadhā vīryaṁ tad indrasya karma yad ahiṁ vivṛścat | vi vajreṇa pariṣado jaghānāyann āpo yanam icchamānāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र॒ऽवाच्य॑म्। श॒श्व॒धा। वी॒र्य॑म्। तत्। इन्द्र॑स्य। कर्म॑। यत्। अहि॑म्। वि॒ऽवृ॒श्चत्। वि। वज्रे॑ण। प॒रि॒ऽषदः॑। ज॒घा॒न॒। आय॑न्। आपः॑। अय॑नम्। इ॒च्छमा॑नाः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:33» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो सूर्य्य (अहिम्) मेघ को (विवृश्चत्) काटता है (यत्) जो (इन्द्रस्य) सूर्य्य का (वीर्य्यम्) बलरूप (कर्म) कर्म है (तत्) वह (शश्वधा) निरन्तर हो (प्रवाच्यम्) कहने योग्य और जैसे (वज्रेण) किरण से विदीर्ण किये गये मेघ के (आपः) जल (अयनम्) भूमि स्थान को (आयन्) प्राप्त होवैं मेघ को (विजघान) नाश करता है वैसे ही (इच्छमानाः) इच्छा करते हुए जन (परिषदः) जिनमें बैठें, उन सभा को करैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो धर्मसम्बन्धी काम करके दुष्ट पुरुषों के निवारण के लिये अपना पराक्रम दिखावे, उसके उस कर्म की प्रशंसा सब काल में करनी चाहिये। जो लोग सभा में श्रेष्ठ होवें, वे न्याय से सब लोगों की उन्नति करने की इच्छा करें ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यः किं कुर्यादित्याह।

अन्वय:

हे मनुष्या यः सूर्य्योऽहिं विवृश्चद्यदिन्द्रस्य वीर्य्यं कर्मास्ति तच्छश्वधा प्रवाच्यं यथा वज्रेण हता मेघस्याऽऽपोऽयनमायन् मेघं विजघान तथैवेच्छमानाः परिषदः कुर्य्युः ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रवाच्यम्) प्रवक्तुं योग्यम् (शश्वधा) शश्वदेव (वीर्य्यम्) बलम् (तत्) (इन्द्रस्य) सूर्य्यस्य (कर्म) (यत्) (अहिम्) (विवृश्चत्) छिनत्ति (वि) (वज्रेण) किरणेन (परिषदः) परिषीदन्ति यासु ताः सभाः (जघान) हन्ति (आयन्) प्राप्नुयुः (आपः) (अयनम्) भूमिस्थानम् (इच्छमानः) अभिलषन्तः ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यो धर्म्यं कर्म कृत्वा दुष्टनिवारणाय स्वबलं दर्शयेत्तस्य तत्कर्मप्रशंसनं सदैव कार्य्यं ये परिषदि सभ्याः स्युस्ते न्यायेन सर्वोन्नतिं चिकीर्षेयुः ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे धर्माचे कार्य करून दुष्ट पुरुषांच्या निवारणासाठी पराक्रम करतात त्या कर्माची प्रशंसा नेहमी केली पाहिजे. जे सभेत श्रेष्ठ असतात त्यांनी न्यायाने सर्व लोकांच्या उन्नतीची इच्छा धरावी. ॥ ७ ॥