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अच्छा॒ सिन्धुं॑ मा॒तृत॑मामयासं॒ विपा॑शमु॒र्वीं सु॒भगा॑मगन्म। व॒त्समि॑व मा॒तरा॑ संरिहा॒णे स॑मा॒नं योनि॒मनु॑ सं॒चर॑न्ती॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

acchā sindhum mātṛtamām ayāsaṁ vipāśam urvīṁ subhagām aganma | vatsam iva mātarā saṁrihāṇe samānaṁ yonim anu saṁcarantī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अच्छ॑। सिन्धु॑म्। मा॒तृऽत॑माम्। अ॒या॒स॒म्। विपा॑शम्। उ॒र्वीम्। सु॒ऽभगा॑म्। अ॒ग॒न्म॒। व॒त्सम्ऽइ॑व। मा॒तरा॑। सं॒रि॒हा॒णे इति॑ स॒म्ऽरि॒हा॒णे। स॒मा॒नम्। योनि॑म्। अनु॑। स॒म्ऽचर॑न्ती॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:33» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (मातृतमाम्) अत्यन्त माता के सदृश पालन करनेवाली नदियाँ (सिन्धुम्) समुद्र के प्रति प्राप्त होती हैं वैसे ही हम (विपाशम्) बन्धनरहित (उर्वीम्) बड़ी (सुभगाम्) सौभाग्य से युक्त पढ़ाने और उपदेश देनेवाली स्त्री को (अगन्म) प्राप्त हों और जैसे (संरिहाणे) उत्तम प्रकार आस्वाद करनेवाली स्त्रियाँ (समानम्) तुल्य (योनिम्) गृह को (अनु) (सञ्चरन्ती) अनुकूलता से उत्तम प्रकार चलतीं और जानती हुईं (मातरा) माता के सदृश वर्त्तमान (वत्समिव) जैसे गौ बछड़े को वैसे मुझको पढ़ाने और शिक्षा देने के लिये प्राप्त होवें उनको मैं (अच्छ, अयासम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होऊँ ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे समुद्र को नदियाँ और बछड़ों को गौवें और स्त्री पुरुष एक गृह को प्राप्त होते हैं, वैसे ही पढ़ाने और उपदेश देनेवाली स्त्रियाँ हम लोगों को प्राप्त हों और हम लोग जो कन्या और सौभाग्यवाली स्त्रियाँ हों, उनको प्राप्त हों ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यथा मातृतमां सिन्धुं प्राप्नुवन्ति तथैव वयं विपाशमूर्वीं सुभगामध्यापिकामुपदेशिकामगन्म। यथा संरिहाणे समानं योनिमनुसञ्चरन्ती मातरा वत्समिव मामध्यापनशिक्षार्थं प्राप्नुयातस्ते अहमच्छायासम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अच्छ) उत्तमरीत्या। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (सिन्धुम्) समुद्रम् (मातृतमाम्) अतिशयेन मातरो मातृवत्पालिका नद्यः। मातर इति नदीना०। निघं० १। १२। अत्र सुपां व्यत्ययः। (अयासम्) अयासिषं प्राप्नुयाम। अत्र वाच्छन्दसीतीडभावः। (विपाशम्) विगता पाट् बन्धनं यस्यान्ताम् (उर्वीम्) महतीम् (सुभगाम्) सौभाग्ययुक्ताम् (अगन्म) प्राप्नुयाम (वत्समिव) यथा गौर्वत्सम् (मातरा) मातृवद्वर्त्तमाने (संरिहाणे) सम्यगास्वादकर्त्र्यौ (समानम्) (योनिम्) गृहम् (अनु) (सञ्चरन्ती) सम्यग्गच्छन्त्यौ जानन्त्यौ ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा समुद्रं नद्यो वत्सान् गावो दम्पती समानं गृहं च प्राप्नुतस्तथैवाऽध्यापिकोपदेशिका अस्मान् प्राप्नुवन्तु वयं च याः कन्याः सौभाग्यवत्यश्च ताः प्राप्नुयाम ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशा नद्या समुद्राला मिळतात व गायींना वासरे प्राप्त होतात आणि पती-पत्नी एकाच घरात राहतात, तसेच शिकविणाऱ्या व उपदेश करणाऱ्या स्त्रिया आम्हाला प्राप्त व्हाव्यात. कन्या व सौभाग्यशाली स्त्रियांना आम्ही प्राप्त व्हावे. ॥ ३ ॥