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उद्व॑ ऊ॒र्मिः शम्या॑ ह॒न्त्वापो॒ योक्त्रा॑णि मुञ्चत। मादु॑ष्कृतौ॒ व्ये॑नसा॒ऽघ्न्यौ शून॒मार॑ताम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud va ūrmiḥ śamyā hantv āpo yoktrāṇi muñcata | māduṣkṛtau vyenasāghnyau śūnam āratām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। वः॒। ऊ॒र्मिः। शम्याः॑। ह॒न्तु॒। आपः॑। योक्त्रा॑णि। मु॒ञ्च॒त॒। मा। अदुः॑ऽकृतौ। विऽए॑नसा। अ॒घ्न्यौ। शून॑म्। आ। अ॒र॒ता॒म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:33» मन्त्र:13 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रियो ! आप (शम्याः) कर्म में उत्पन्न (आपः) जलों के सदृश दुःख को (हन्तु) दूर करैं और (वः) आपका जो (ऊर्मिः) तरंग के सदृश उत्साह उससे (योक्त्राणि) जोड़नों को तुम (मुञ्चत) त्याग करो हे स्त्री और पुरुष ! तुम दोनों (अदुष्कृतौ) दुष्टाचरण से रहित हुए दुष्ट कर्म को (मा) नहीं प्राप्त होओ (व्येनसा) पाप का आचरण नष्ट होने से (अघ्न्यौ) नहीं मारने योग्य होते हुए पति और स्त्री दोनों (शूनम्) सुख को (उत्) उत्तम प्रकार (आ) (अरताम्) प्राप्त होवैं ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जो स्त्री और पुरुष दुःख के बन्धनों को काट और दुष्ट आचरण को त्याग के विद्या की उन्नति करें, तो वे निरन्तर सुख को प्राप्त होवैं ॥१३॥ इस सूक्त में मेघ, नदी, विद्वान्, मित्र, शिल्पी, नौका आदि स्त्री पुरुष का कृत्य वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तेतीसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे स्त्रियो भवन्त्यः शम्या आप इव दुःखं हन्तु यो व ऊर्मिरिवोत्साहेन योक्त्राणि यूयं मुञ्चत। हे स्त्रीपुरुषौ युवामदुष्कृतौ दुष्टं मारतां व्येनसाघ्न्यौ सत्यौ पतिः पत्नी च द्वौ शूनं सुखमुदारतां प्राप्नुताम् ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) उत्कृष्टे (वः) युष्मान् (ऊर्मिः) तरङ्ग इवोत्साहः (शम्याः) शम्यां कर्मणि भवाः (हन्तु) दूरीकुर्वन्तु (आपः) जलानीव (योक्त्राणि) योजनानि (मुञ्चत) त्यजत (मा) निषेधे (अदुष्कृतौ) अदुष्टाचारिणौ (व्येनसा) विनष्टपापाचरणेन (अघ्न्यौ) हन्तुमनर्हे (शूनम्) सुखम्। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (आ) (अरताम्) प्राप्नुताम् ॥१३॥
भावार्थभाषाः - यौ स्त्रीपुरुषौ दुःखबन्धनानिच्छित्वा दुष्टाचारं विहाय विद्योन्नतिं कुर्य्यातां तौ सततं सुखमाप्नुयातामिति ॥१३॥ अत्र मेघनदीविद्वत्सखिशिल्पिनौकादिस्त्रीपुरुषकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रयस्त्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे स्त्री-पुरुष दुःखबंधनातून सुटतात व दुष्ट आचरणाचा त्याग करतात आणि विद्येची वृद्धी करतात ते निरंतर सुख प्राप्त करतात. ॥ १३ ॥