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यद॒ङ्ग त्वा॑ भर॒ताः सं॒तरे॑युर्ग॒व्यन्ग्राम॑ इषि॒त इन्द्र॑जूतः। अर्षा॒दह॑ प्रस॒वः सर्ग॑तक्त॒ आ वो॑ वृणे सुम॒तिं य॒ज्ञिया॑नाम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad aṅga tvā bharatāḥ saṁtareyur gavyan grāma iṣita indrajūtaḥ | arṣād aha prasavaḥ sargatakta ā vo vṛṇe sumatiṁ yajñiyānām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। अ॒ङ्ग। त्वा॒। भ॒र॒ताः। स॒म्ऽतरे॑युः। ग॒व्यन्। ग्रामः॑। इ॒षि॒तः। इन्द्र॑ऽजूतः। अर्षा॑त्। अह॑। प्र॒ऽस॒वः। सर्ग॑ऽतक्तः। आ। वः॒। वृ॒णे॒। सु॒ऽम॒तिम्। य॒ज्ञिया॑नाम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:33» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अङ्ग) मित्र ! (यत्) जिस (त्वा) आपको (भरताः) सबके धारण वा पोषण करनेवाले (सन्तरेयुः) संतरे अर्थात् आपके स्वभाव से पार हो वह (ग्रामः) मनुष्यों के समूह के समान (इषितः) प्रेरणा को प्राप्त (इन्द्रजूतः) बिजुली के सदृश प्रताप और (प्रसवः) अत्यन्त ऐश्वर्य्ययुक्त (सर्गतक्तः) जल के संकोच करनेवाले (गव्यन्) गौ के तुल्य आचरण करते हुए आप (अह) ग्रहण करने में (अर्थात्) प्राप्त होवैं वा हे विद्वानो ! जैसे मैं (यज्ञियानाम्) यज्ञ के सिद्ध करनेवाले (वः) आप लोगों की (सुमतिम्) उत्तम बुद्धि को (आ) सब प्रकार (वृणे) स्वीकार करता हूँ, वैसे आप लोग मेरी बुद्धि को स्वीकार करिये ॥११॥
भावार्थभाषाः - जैसे विद्वान् लोग विद्या के पार जाय अर्थात् सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ के बुद्धिमान् होते हैं, वैसे और लोग भी हों, ऐसा करने से सम्पूर्ण जन दुःख के पार जाय अर्थात् दुःख को उल्लङ्घन करके सुखी होवैं ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अङ्ग ! यद्यं त्वा भरताः सन्तरेयुः स ग्राम इषित इन्द्रजूतः प्रसवः सर्गतक्तो गव्यन् भवानहार्षात्। हे विद्वांसो यथाहं यज्ञियानां वः सुमतिमावृणे तथा यूयं मम प्रज्ञां स्वीकुरुत ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यम् (अङ्ग) मित्र (त्वा) त्वाम् (भरताः) सर्वेषां धर्त्तारः पोषकाः (सन्तरेयुः) (गव्यन्) गौरिवाचरन् (ग्रामः) मनुष्यसमूह इव (इषितः) प्रेरितः (इन्द्रजूतः) इन्द्रो विद्युदिव प्रतापयुक्तः (अर्षात्) प्राप्नुयात् (अह) विनिग्रहे (प्रसवः) प्रकृष्टैश्वर्य्यः (सर्गतक्तः) जलस्य संकोचकः। सर्ग इत्युदकना०। निघं० १। १२। (आ) समन्तात् (वः) युष्माकम् (वृणे) स्वीकुर्वे (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (यज्ञियानाम्) यज्ञस्य साधकानाम् ॥११॥
भावार्थभाषाः - यथा विद्वांसो विद्यापारं गत्वा प्राज्ञा जायन्ते तथेतरे मनुष्या अपि भवन्तु एवं कृते सर्वे दुःखान्तं गत्वा सुखिनः स्युः ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे विद्वान लोक संपूर्ण विद्या शिकून बुद्धिमान होतात तसे इतर लोकांनीही व्हावे. असे करण्याने संपूर्ण लोकांचे दुःख नाहीसे होते व ते सुखी होतात. ॥ ११ ॥