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प्र पर्व॑तानामुश॒ती उ॒पस्था॒दश्वे॑इव॒ विषि॑ते॒ हास॑माने। गावे॑व शु॒भ्रे मा॒तरा॑ रिहा॒णे विपा॑ट्छुतु॒द्री पय॑सा जवेते॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra parvatānām uśatī upasthād aśve iva viṣite hāsamāne | gāveva śubhre mātarā rihāṇe vipāṭ chutudrī payasā javete ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। पर्व॑तानाम्। उ॒श॒ती इति॑। उ॒पऽस्था॑त्। अश्वे॑इ॒वेत्यश्वे॑ऽइव। विसि॑ते॒ इति॒ विऽसि॑ते। हास॑माने॒ इति॑। गावा॑ऽइव। शु॒भ्रे इति॑। मा॒तरा॑। रि॒हा॒णे इति॑। विऽपा॑ट्। शु॒तु॒द्री। पय॑सा। ज॒वे॒ते॒ इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:33» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तेरह ऋचावाले तैंतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में नदी के दृष्टान्त से स्त्री का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो पढ़ाने और उपदेश देनेवाली (मातरा) मान्य देनेवालियों सी कन्याओं की शिक्षा को (उशती) कामना करनेवाली (पर्वतानाम्) मेघों के (उपस्थात्) समीप से (अश्वेइव) घोड़े और घोड़ी के सदृश (विषिते) विद्या और शुभ गुणयुक्त कर्मों से व्याप्त वा घोड़े और घोड़ी के सदृश (हासमाने) परस्पर प्रेम करती (रिहाणे) प्रीति से एक दूसरे को सूंघती हुई (शुभ्रे) उत्तम गुणों से युक्त (गावेव) गौ और बैल के सदृश (पयसा) जल से (विपाट्) कई प्रकार चलने वा ढाँपनेवाली (शुतुद्री) शीघ्र दुःखदायक (प्र) (जवेते) चलती हैं वैसे वर्त्तमान होवें, उन अध्यापिका और उपदेशिका को कन्या और स्त्रियों के पढ़ाने और उपदेश करने में नियुक्त करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पर्वतों के मध्य में वर्त्तमान नदियाँ घोड़ों के सदृश दौड़ती और गौओं के सदृश शब्द करती हैं, वैसे ही प्रसन्न और उत्तम गुण कर्म स्वभावयुक्त विद्या की उन्नति की कामना करनेवाली स्त्रियाँ कन्याओं और स्त्रियों को निरन्तर शिक्षा देवैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ नदीदृष्टान्तेन स्त्रीवर्णनमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या ये अध्यापिकोपदेशिके मातरेव कन्यानां शिक्षामुशती पर्वतानामुपस्थादश्वेइव विषिते अश्वेइव हासमाने रिहाणे शुभ्रे गावेव पयसा विपाट् छुतुद्री प्रजवेते इव वर्त्तमाने भवेतां ते कन्या स्त्रीणामध्ययनोपदेशव्यवहारे नियोजयत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (पर्वतानाम्) मेघानाम् (उशती) कामयमाने (उपस्थात्) समीपात् (अश्वेइव) अश्ववडवाविव (विषिते) विद्याशुभगुणकर्मव्याप्ते (हासमाने) (गावेव) यथा धेनुवृषभौ (शुभ्रे) श्वेते शुभगुणयुक्ते (मातरा) मान्यप्रदे (रिहाणे) आस्वदित्र्यौ। अत्र वर्णव्यत्ययेन लस्य स्थाने रः। (विपाट्) या विविधं पटति गच्छति विपाटयति वा सा (शुतुद्री) शु शीघ्रं तुदति व्यथयति सा (पयसा) जलेन। पय इत्युदकना०। निघं० १। १२। (जवेते) गच्छतः ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पर्वतानां मध्ये वर्त्तमाना नद्योऽश्वा इव धावन्ति गाव इव शब्दायन्ते तथैव प्रसन्नाः शुभगुणकर्मस्वभावा विद्योन्नतिं कामयमानाः स्त्रियः कन्याः स्त्रियश्च सततं सुशिक्षेरन् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात मेघ, नदी, विद्वान, मित्र, शिल्पी, नौका इत्यादी व स्त्री-पुरुष यांच्या कृत्याचे वर्णन केल्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाच्या बरोबर संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा पर्वतामध्ये वाहणाऱ्या नद्या घोड्याप्रमाणे पळतात व गायीप्रमाणे आवाज करतात तसे प्रसन्न व उत्तम गुण, कर्म, स्वभावाच्या व विद्येच्या उन्नतीची इच्छा करणाऱ्या स्त्रियांनी कन्यांना निरंतर शिक्षण द्यावे. ॥ १ ॥