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म॒नु॒ष्वदि॑न्द्र॒ सव॑नं जुषा॒णः पिबा॒ सोमं॒ शश्व॑ते वी॒र्या॑य। स आ व॑वृत्स्व हर्यश्व य॒ज्ञैः स॑र॒ण्युभि॑र॒पो अर्णा॑ सिसर्षि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

manuṣvad indra savanaṁ juṣāṇaḥ pibā somaṁ śaśvate vīryāya | sa ā vavṛtsva haryaśva yajñaiḥ saraṇyubhir apo arṇā sisarṣi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒नु॒ष्वत्। इ॒न्द्र॒। सव॑नम्। जु॒षा॒णः। पिब॑। सोम॑म्। शश्व॑ते। वी॒र्या॑य। सः। आ। व॒वृ॒त्स्व॒। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। य॒ज्ञैः। स॒र॒ण्युऽभिः॑। अ॒पः। अर्णा॑। सि॒स॒र्षि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:32» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (हर्य्यश्व) हरणकर्त्ता वा हरे रंग और व्यापन स्वभाववाले घोड़ों के समान अग्नि पदार्थ जिन्होंने जाने वह हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के दाता ! जिससे आप (सरण्युभिः) अपने शरण प्राप्त होने की इच्छायुक्त पुरुषों और (यज्ञैः) विद्वानों का सत्कार शिल्पक्रिया और विद्या आदि के दानरूप व्यवहारों से (अर्णा) जलों को (अपः) अन्तरिक्ष के प्रति (सिसर्षि) पहुँचाते हैं इससे (सः) वह आप (सवनम्) ऐश्वर्य्य के (जुषाणः) सेवनेवाले (शश्वते) निरन्तर अनादि सिद्ध (वीर्य्याय) बल के लिये (सोमम्) शरीर और आत्मा के बल तथा विज्ञान के बढ़ानेवाले महौषधि आदि के रस को (पिब) पीवो और (मनुष्वत्) विचार करनेवाले विद्वान् पुरुष के तुल्य ऐश्वर्य्य का सेवनेवाले शरीर और आत्मा के बल और विज्ञान के बढ़ानेवाले महौषधि आदि के रस को पीजिये तथा (आ) (ववृत्स्व) अच्छे प्रकार वर्त्ताव कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य ब्रह्मचर्य विद्या उत्तम शिक्षायुक्त भोजन विहार सत्पुरुषों का सङ्ग और धर्म के सेवन करने से उत्तम आत्मा और परमात्मा के योग से उत्पन्न हुए बल को बढ़ाते हैं, वे लोग सब प्रकार उन्नत होते हैं। जैसे सूर्य्य जल को अन्तरिक्ष के प्रति वायु के साथ ऊपर ले जाता है, वैसे ही विद्वान् लोग सम्पूर्ण जनों को प्रतिष्ठा के साथ उन्नति पर पहुँचाते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह।

अन्वय:

हे हर्य्यश्वेन्द्र ! यतस्त्वं सरण्युभिर्यज्ञैरर्णा अपः सिसर्षि तस्मात्स त्वं सवनं जुषाणः शश्वते वीर्याय सोमं पिब। मनुष्वत्सवनं जुषाणः सन्त्सोमं पिब आववृत्स्व ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मनुष्वत्) मननशीलेन विदुषा तुल्यः (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (सवनम्) ऐश्वर्य्यम् (जुषाणः) सेवमानः (पिब) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सोमम्) शरीरात्मबलविज्ञानवर्धकं महौषध्यादिरसम् (शश्वते) निरन्तरायाऽनादिभूताय (वीर्याय) बलाय (सः) (आ) (ववृत्स्व) वर्त्तते (हर्यश्व) हरणशीला हरिता वा अश्वा व्यापनस्वभावा यस्य तत्सम्बुद्धौ अश्वाइव अग्न्यादयो विदिता येन तत्सम्बुद्धौ वा (यज्ञैः) विद्वत्सत्कारशिल्पक्रियाविद्यादिदानाख्यैर्व्यहारैः (सरण्युभिः) आत्मनः सरणं गमनमिच्छुभिः (अपः) अन्तरिक्षं प्रति (अर्णा) अर्णांसि जलानि। अत्र सुपां सुलुगिति विभक्तेराकारादेशः छान्दसो वर्णलोप इति सलोपः। (सिसर्षि) गमयसि। अत्र बहुलञ्छन्दसीत्यभ्यासस्येत्वम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या ब्रह्मचर्यविद्यासुशिक्षायुक्ताहारविहारसत्पुरुषसङ्गधर्मसेवनेन सनातनं परमात्मात्मयोगजं बलं वर्धयन्ति ते सर्वत उन्नता भवन्ति यथा सूर्यो जलमन्तरिक्षं प्रति वायुना सह क्षिपति तथैव विद्वांसः सर्वानुन्नतिं प्रति नयन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे ब्रह्मचर्य, विद्या, उत्तम शिक्षण, भोजन, विहार, सत्पुरुषांचा संग व धर्माचे सेवन करण्याने उत्तम आत्मा व परमात्म्याच्या योगाने उत्पन्न झालेले बल वाढवितात, ते लोक सर्व प्रकारे उन्नत होतात. जसा सूर्य जलाला अंतरिक्षात वायूबरोबर घेऊन जातो तसेच विद्वान लोक संपूर्ण लोकांची उन्नती करतात. ॥ ५ ॥