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गवा॑शिरं म॒न्थिन॑मिन्द्र शु॒क्रं पिबा॒ सोमं॑ ररि॒मा ते॒ मदा॑य। ब्र॒ह्म॒कृता॒ मारु॑तेना ग॒णेन॑ स॒जोषा॑ रु॒द्रैस्तृ॒पदा वृ॑षस्व॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

gavāśiram manthinam indra śukram pibā somaṁ rarimā te madāya | brahmakṛtā mārutenā gaṇena sajoṣā rudrais tṛpad ā vṛṣasva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

गोऽआ॑शिरम्। म॒न्थिन॑म्। इ॒न्द्र॒। शु॒क्रम्। पिब॑। सोम॑म्। र॒रि॒म। ते॒। मदा॑य। ब्र॒ह्म॒ऽकृता॑। मारु॑तेन। ग॒णेन॑। स॒ऽजोषाः॑। रु॒द्रैः। तृ॒पत्। आ। वृ॒ष॒स्व॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:32» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कौन लोग श्रीमान् होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) दुःख के नाश करनेवाले ! हम लोग (ते) आपके (मदाय) आनन्द के अर्थ जिस (गवाशिरम्) किरणों वा इन्द्रियों से मिले हुए (शुक्रम्) शीघ्र सुख पवित्र करने वा (मन्थिनम्) मथने का स्वभाव रखने और (सोमम्) ऐश्वर्य्य के करनेवाले पान करने योग्य वस्तु को (ररिम) देवैं उसका आप (पिब) पान करिये और (ब्रह्मकृता) धन वा अन्न को करनेवाले (मारुतेन) सुवर्ण आदि के सम्बन्धी (गणेन) गणना करने योग्य गिने हुए समूह से (रुद्रैः) प्राणों के सदृश मध्यम विद्वानों के साथ (सजोषाः) अपने तुल्य प्रीति का सेवन करनेवाले (तृपत्) तृप्त होते हुए (आ) सब प्रकार (वृषस्व) वृषभ के तुल्य बलिष्ठ हूजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अन्य जनों में अपने तुल्य वर्त्तमान होकर उन लोगों के साथ सुख का ग्रहण और सुवर्ण आदि धन की वृद्धि करके तृप्त हुए बलिष्ठ होते, वे ही श्रीमान् होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

के श्रीमन्तो भवन्तीत्याह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! वयं ते मदाय ये गवाशिरं शुक्रं मन्थिनं सोमं ररिम तं त्वं पिब ब्रह्मकृता मारुतेन गणेन रुद्रैः सह सजोषास्तृपत्सन्नावृषस्व ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (गवाशिरम्) गावः किरणा इन्द्रियाणि वाऽश्नन्ति यस्मिँस्तम् (मन्थिनम्) मन्थितुं शीलं यस्य तम् (इन्द्र) दुःखविदारक (शुक्रम्) आशु सुखकरं शुद्धम् (पिब)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सोमम्) ऐश्वर्य्यकारकं पेयम् (ररिम) दद्याम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (ते) तव (मदाय) आनन्दाय (ब्रह्मकृता) ब्रह्म धनमन्नं वा करोति यस्तेन (मारुतेन) मारुतेन हिरण्यादिसम्बन्धेन। अत्र संहितायामिति दीर्घः। मरुदिति हिरण्यना०। निघं० १। २। (गणेन) गणनीयेन सङ्ख्यातेन समूहेन (सजोषाः) आत्मसमानप्रीतिं सेवमानः सन् (रुद्रैः) प्राणैरिव मध्यमैर्विद्वद्भिः सह (तृपत्) तृप्तः सन् (आ) समन्तात् (वृषस्व) वृष इव बलिष्ठो भव ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अन्येषु स्वात्मवद्वर्त्तित्वा तैः सह सुखादानं कृत्वा सुवर्णादिधनमुन्नीय तृप्ताः सन्तो बलिष्ठा जायन्ते त एव श्रीमन्तो भवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे इतरांबरोबर आपल्यासारखीच वागून त्यांच्याबरोबर सुखाने राहून सुवर्ण इत्यादी धनाची वृद्धी करून तृप्त होऊन बलिष्ठ होतात, ती श्रीमान होतात. ॥ २ ॥